पृष्ठ:कवितावली.pdf/२२२

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कांडांक लं० २४ "उदधि अपार उतरत नहिंलागी बार छन्दक पृष्ठांक १०८ ६६ ऊँचे। मन, ऊँची रुचि, भाग नीचा निपट ही ऋषिनारि उधारि, कियो सठ केवट मीत " १० उ० १७६ ३१६ एक करै धौज, एक कहै कादो सौज एक तो कराल कलिकाल सूल-मूल तामें एहि घाट ते थोरिक दूरि अहै ओ ओझरी की झोरी काँधे, आँतन की सेल्ही बाँधे लं० ५० १३४ क २७३ २५७ Sy IN N० २३५ कल करी ब्रजबासिन सों कतहुँ बिटप भूधर उपारि कनक कुधर-केदार उ० ११५ कनक गिरि सृग चढ़ि देखि मर्कट कटक लं० १७ कबहूँ ससि माँगत प्रारि करें कह्यौ मत मातुल विभीषनहु बार बार का कियो जोग आमिल जू कागर-कीर ज्यों भूषन चीर काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ कानन उजारथो तो उजायोन. बिगारेउ कछ 'कानन उजारि, अच्छ मारि, धारि धूरि कीन्हीं लं० २२ 'कानन, भूधर, वारि, बयारि कानन बास, दसानन सो रिपु लं. ५३ काम से रूप, प्रताप दिनेस से काल कराल नृपालन के बा० २२ काल्हि ही वरुन तन, काल्हि 'ही धरनि धन० १२० १५७ ११५ १३७ १८५ ८७ ११२ २२ २६२ १५२