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उत्तरकांंड


अनाज का इत्यादि) उपखान= (उपाख्यान) कहावत। निदानु= निश्चय। स्वान= कुत्ता।

भावार्थ—जिसके (तुलसी के) वचन में विकार है (कटुवादी है), जिसके कर्म भी बुरे हैं तथा मन भी सुविचारहीन है और जो पापों का खजाना ही है, जो (तुलसीदास) कहलाता तो है रामदास, पर सच्चा दास न होकर केवल पेट-पालनार्थ राम राम जपता है और जो (तुलसी) बड़ों के पास नहीं जाता कि सेवा करनी पड़ेगी, जिस (तुलसी) पर प्राचीन कहावत (काम का न काज का दुश्मन अनाज का) खूब चरितार्थ होती है, उस (तुलसीदास) को भी लोग भला आदमी कहते हैं, इसका कोई अन्य हेतु नहीं है, वरन् अच्छी तरह से यही निश्चित होता है और लोक-व्यवहार में विदित है तथा जहाँ तहाँ देखने में भी आता है कि बड़े के स्नेहपात्र कुत्ते का भी लोग सम्मान करते हैं।

अलंकार—विभावना से पुष्ट उपमान-प्रमाण।

मूल—स्वारथ को साज न समाज परमारथ को,
मो सो दगाबाज दूसरो न जगजाल है।
कै न आयौं, करौं न करौंगो करतूति भली,
लिखी न बिरंचि हू भलाइ भूलि भाल है।
रावरी सपथ, राम नाम ही की गति मेरे
इहॉ झुँँठी झुँठी सो तिलोक तिहूँ काल है।
‛तुलसी‘ को भलो पै तुम्हारे ही किये कृपालु,
कीजै न बिलंब, बलि, पानी भरी खाल है॥६५॥

शब्दार्थ―स्वारथ को साज= सासारिक सुख-भोग की सामग्री (स्त्री= पुत्रादि)। परमारय को समाज= मोक्ष-साधन के उपाय (तीथ, जप, तप आदि)। दगाबाज (उर्दू)= धोखेबाज। जगजाल= इस मायामय ससार में। कै न आयौं= न मैने पहले किया। करतूति= कर्म। बिरचि= ब्रह्मा। भूलि= भूलकर भी। भाल= भाग्य, ललाट, माथा। नाम= राम नाम। गति= शरण, पहुँच। इहॉ= आपसे। पानी-मरी खाल है= यह शरीर नाशवान है। पै= निश्चय।

भावार्थ―न मेरे पास सासारिक सुख-भोग की सामग्री है, न कोई