पृष्ठ:कवितावली.pdf/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५१
उत्तरकांंड


नहीं तो। धोबी कै सी कूकर न घर को न घाट को=(कहावत) न इधर का न उधर का, अर्थात् रामचद्रजी की कृपा न होगी तो लोक परलोक एक भी न बन पड़ेगा।

भावार्थ—न मेरे पास सासारिक सुख-भोग की ही सामग्री है और न मन में विराग, न कभी योग-यज्ञादि ही किए। यह शरीर सासारिक सुख के लिए अनुचित उपाय करना भी नहीं छोड़ता। अनेक बासनाएँ करते करते आज तक हानि ही होती रही क्योकि मैं चाहता तो हूँ सुदर शाल-दुशाले, पर पाता नहीं हूँ टाट का टुकड़ा भी। कृपालु रामचद्रजी, मुझ निकम्मे पर भी आप बड़े कृपालु हुए हैं जो मुझ कौड़ी के लालची ने राम नाम का प्रेम रूपी पारस पाया (अर्थात् तुच्छ विषय-भोग के लालची को राम-भक्ति मिल गई)। तुलसीदास कहते हैं कि हे राम, आप ही की कृपा से मेरी बनेगी, नहीं तो मैं लोक और परलोक दोनो में से एक भी नहीं सुधार सकता।

अलंकार—छकोक्ति।

मूल—ऊँचो मन, ऊँची रुचि, भाग नीचो निपट ही,
लोकरीति-लायक न लंगर लबारु है।
स्वारथ अगम परमारथ की कहा चली,
पेट की कठिन, जम जीव को जवारु है।
चाकरी न आकरी न खेती न बनिज, भीख,
जानत न कूर कछु किसव कबारु है।
'तुलसी' की बाजी राखी राम ही के नाम, नतु,
भेंट पितरन को न मूड़ हू में बार है॥६७॥

शब्दार्थ—मन= मनोरथ। रुचि= इच्छा। निपट= अत्यंत, बिलकुल। लोकरीति-लायक न= लोगों से व्यवहार करने के लायक भी नहीं हूँ। लगर= ढीठ, नटखट। लबारु= भूटा। स्वारथ अगम= स्वार्थ अर्थात् भोजन वस्त्र भी इच्छापूर्वक मिलना कठिन है। परमार्थ= परलोक, मोक्ष। परमारथ की कहा चली= मोक्ष प्राप्त करने की बात क्या कहूँ। जवारु= (फा० बवाल) भार, जंजाल, झंझट। चाकरी= सेवकाई= नौकरी। आकरी= खान खोदने का काम। बनिज= वाणिज्य। किसन(अ०)कारीगरी। कबारु= कबाड़, ब्यवसाय, रोजगार। बाजी= प्रतिष्ठा, प्रतिज्ञा। भेट पितरन को न मूड हू मे