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कवितावली


अपनी जिह्वा से जप कर मैने रामचंद्रजी को भी छल लिया है। उसी राम नाम से मेरी प्रीति है, उसी रामनाम का मुझे भरोसा है, और उसी रामनाम के प्रसाद से मैं निश्चित होकर सोऊँगा (मेरा ऐसा ही विश्वास है)।

मूल—मेरे जान जब ते हो जीव ह्वै जनम्यो जग
तब ते बेसाह्यो दाम लोह कोह काम को।
मन तिनहीं की सेवा, तिनही सो भाव नीको,
बचन बनाइ कहौ ‘हौ गुलाम राम को’।
नाथ हू न अपनायो, लोक झूठी ह्वै परी, पै
प्रभु हू ते प्रबल प्रताप प्रभु-नाम को।
आपनी भलाई भलो कीजै तो भलाई, न तौ,
‘तुलसी’ जो खुलैगो खजानो खोटे दाम को॥७०॥

शब्दार्थ—मेरे जाने= मेरी समझ मे। बेसाह्यो= खरीदा आ। लोह= लोभ। कोह= क्रोध। तिनहीं= लोभादिको की हा। भाव= प्रेम। नीको= अधिक। बचन बनाइ कहौ= मन से सत्य सत्य नहीं कहता हूँ बरन् बनाकर अर्थात् झूठ ही कहता हूँ। गुलाम (अ०)= दास। पै= परतु। खुलैगो खजानो खोटे दाम को= (मुहाबरा) खोटाई प्रकट हो जायगी, भडाफोड़ हो जायगा।

भावार्थ—मेरी समझ मे जब से मैने इस ससार में जन्म पाया है तब से लोभ, क्रोध और काम ने मुझे दाम देकर मोल ले लिया है। अतएव मेरा मन उन्ही की सेवा मे लगता है और उन्ही से मुझे अतिशय प्रेम है। परतु झुठ बोलकर प्रकट करता हूँ कि मै राम का सेवक हूँ। मुझे अयोग्य जानकर स्वामी (रामचन्द्रजी) ने भी नहीं अपनाया, झूठ ही यह प्रसिद्धि हो गई कि मै राम का सेवक हूँ, परतु रामचन्द्रजी के नाम का प्रताप रामचद्रजी से भी प्रबल है। अतः हे नाथ, अपनी स्वाभाविक भलाई से आप मेरा भला करे तो अच्छा ही है, नही तो मेरे (तुलसीदास के) पापों का भंडा-फोड़ हो जायगा (तब आप ही को बदनामी होगी कि रामदास भी बुरे होते हैं)।

मूल—जोग न बिराग जप जाग तप त्याग ब्रत,
तीरथ न धर्म जानौं बेद विधि किमि है।