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उत्तरकांंड


अच्छी तरह वैर है। अपने शरीर में बल भी नहीं है और हितकारी माता पिता का भी बल नहीं है, न मुझे इस लोक का डर है, न परलोक की ही चिंता है, न आज तक मैंने किसी देवता की सेवा ही की जिससे मै उस देवता से कुछ सहायता की आशा रखूँँ, न मेरा कोई घर, न मेरे पास सपत्ति ही है जिसका मै गर्व करूँ (भाव यह कि न मैने कुछ पुण्य कर्म ही किए, न मेरे पास कुछ है)। तुलसीदास कहते हैं कि मेरे मन का स्वभाव तो कुछ ऐसा ही विचित्र है कि रामचन्द्रजी के ही नाम से जो कुछ भी हो वही मुझे अच्छा लगता है।

मूल—ईस न गनेस न, दिनेस न, धनेस न,
सुरेस सुर गौरि गिरापति नहिं जपने।
तुम्हरेई नाम को भरोसो भव तारिबे को,
बैठे उठे जागत बागत सोए सपने।
‘तुलसी’ है बावरो सो रावरोई, रावरी सौं,
रावरेऊ जानि जिय, कीजिये जु अपने।
जानकी-रमन! मेरे, रावरे बदन फेरे,
ठाऊँन, समाउँ कहाँ, सकल निरपने॥७८॥

शब्दार्थ—ईस= महादेव। दिनेम= सूर्य। धनेस= कुबेर। सुरेस= इंद्र। गिरापति= सरस्वती के पति, ब्रह्मा। भव= संसार। बागत= चलते फिरते। सौं= शपथ। रावरे बदन फेरे= आपके मुँह फेरने पर, आपके विमुख होने से, आपके रूठने से। ठाउँ= स्थान। समाउँ= रहूँ। निरपने= (निर+अपने) अपने नहीं, अर्थात् पराये, बेगाने।

भावार्थ—तुलसीदास कहते है कि मैं शिव, गणेश, सूर्य, कुबेर, इंद्र और अन्य देवता, पार्वती और ब्रह्माजी किसी का जप-पूजन नहीं करता। बैठे में, उठे में, चलते में, जागते में, सोते मे, सपने में हर समय संसार से तारने के लिए आप ही के नाम का भरोसा है। मैं बाबला आप ही का दास हूँ, यह मैं आपकी ही शपथ लेकर कहता हूँ। अतः अपने मन में यह जानकर कि मैं आपका ही हूँ मुझे अपना कीजिए। हे सीतापति रामचंद्रजी, आपके नाराज होने से मेरे लिए कहीं भी स्थान नहीं, कहाँ रहूँगा? सब मेरे लिए बेगाने हो गए हैं (किसी से भी मेरा संबंध नहीं)।