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कवितावली


मूल—जाहिर जहान में जमानो एक भॉति भयो,
बेचिये बिबुध-धेनु रासभी बेसाहिए।
ऐसेऊ कराल कलिकाल में कृपालु तेरे
नाम के प्रताप न त्रिताप तन दाहिए।
‘तुलसी’ तिहारो मन बचन करम, तेहि
नाते नेह-नेम निज ओर तें निबाहिए।
रंक के निवाज रघुराज राजा राजनि के,
उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए॥७९॥

शब्दार्थ—जाहिर= प्रकट। जहान= संसार। जमानो= समय। जमानो एक भॉति भयो= समय बहुत खराब आ गया है। बिबुध-धेनु= देवताओ की गाय, कामधेनु। रासभी= गदही। बेसाहिए= मोल लीजिए। त्रिताप= दैहिक, दैविक, भौतिक तीनो प्रकार के कष्ट। दाहिए= जलाते हैं। तेहि नाते= उसी संबंध से। नेह-नेम= स्नेह का नियम। रक= दरिद्र, दीन। उमरि= (अ०) आयु। दराज= (फा०) दीर्घ।

भावार्थ—संसार मे प्रकट है कि समय ऐसा बुरा आ गया है कि लोग कामधेनु को बेचकर गदही खरीदने लगे हैं। हे कृपालु, ऐसे भयकर कलियुग में भी आपके नाम के प्रताप से मै दैहिक, दैविक, भौतिक तीनो तापों से नही बलता। तुलसीदास कहते हैं कि मै मन-वचन-कर्म से आपका ही भक्त हूँ, अतः उसी सम्बन्ध से अपनी ओर से मेरे स्नेह के नियम का निर्वाह कर दीजिएगा। हे दीनदयालु, राजाओ के राजा महाराज रामचद्रजी आपकी आयु बड़ी हो, मै ऐसी ही कामना रखता हूँ।

मूल—म्वारथ सथानप, प्रपंच परमारथ,
कहायो राम रावरो हौं; जानत जहानु है।
नाम के प्रताप, बाप! आजु लौं निबाही नीके,
आगे को गोसाई स्वामी सबल सुजानु है।
कलि की कुचालि देखि दिन दिन दूनी देव!
पाहरूई चोर हेरि, हिय हहरानु है।
‘तुलसी’ की बलि, बार बार ही सँभार कीबी,
जद्यपि कृपानिधान सदा सावधान है॥८०॥