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उत्तरकांंड

शब्दार्थ—स्वारथ सयानप= स्वार्थ-साधन करने अर्थात् अपना काम सिद्ध करने में ही अपनी चतुराई समझता हूँ। प्रपंच परमारथ= मोक्ष-प्राप्ति के उपायो मे छल करता हूँ।जहानु= दुनिया। बाप= हे पिता। आगे को= भविष्य से मेरा निर्वाह करने को। सुजानु= अच्छी तरह जानकर। पाहरूई= पहरुवा ही। हेरि= देखकर। हिय हहरानु है= हृदय डर गया है। कीबी= कीजिये।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि यह सारा संसार जानता है कि मै स्वार्थ-साधन करने में ही अपनी चतुरता समझता हूँ, और परमार्थ के कार्यों में छल करता हूँ। हे पिता! अपने नाम के प्रताप से आपने आज तक मेरा अच्छी तरह निर्वाह किया है। भविष्य में भी इसी प्रकार मेरा निर्वाह करने को हे स्वामी, आप समर्थ और सुजान हैं। हे देव, कलि की कुचाल प्रतिदिन दूनी देखकर और पहरुवे को ही चोर देखकर मेरा हृदय डर के मारे भयभीत है। हे कृपालु, मै आपकी बलि जाऊँ। यद्यपि आप अपने भक्तों की रक्षा करने को सदा सावधान रहते हैं तथापि में प्रार्थना करता हूँ कि बार बार मेरी सँभाल कीजिएगा जिसमें मेरे मन में विकार न आवे।

मूल—दिन दिन दूनो देखि दारिद दुकाल दुःख,
दुरित दुराज, सुख सुकृत सकोचु है।
माँगे पैत पावत प्रचारि पातकी प्रचंड,
काल की करालता भले को होत पोचु है।
आपने तौ एक अवलंब, अंब डिंंभ ज्यों,
समर्थ सीतानाथ सब संकट-बिमोचु हैं।
‘तुलसी’ की साहसी सराहिये कृपालु राम।
नाम के भरोसे परिनाम को निसोचु है॥८१॥

शब्दार्थ—दारिद= दरिद्रता। दुकाल= अकाल, अन्न के अभाव का समय। दुरित= पाप। दुराज= दुष्ट राज्य, राज्यविप्लव। सुकृत= पुण्य। सकोच है= घटते जा रहे हैं, कम हो रहे हैं। पैत= दॉव। पावत= पा जाते हैं, विजय पाते हैं। पोचु= बुरा। अवलब= सहारा। अंब= माता। डिंंभ= बच्चा, बच्चे को जैसे माता का सहारा रहता है।.