पृष्ठ:कवितावली.pdf/२५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६४
कवितावली


संकट-बिमोचु= सकटो से छुड़ानेवाले। परिनाम को निसोच है= परिणाम के बारे में निश्चिन्त है।

भावार्थ—प्रतिदिन दरिद्रता, अकाल, दुःख, पाप और राज्य-विप्लव बढ़ते जा रहे है जिससे सुख और पुण्य घटते जा रहे हैं। समय ऐसा विपरीत हो गया है कि बड़े से बड़े पापी को इच्छित वस्तु मिल जाती है, और भले का बुरा होता है। तुलसीदास कहते हैं कि मेरा तो एकमात्र सहारा समर्थ, और सब सकटो से छुडानेवाले सीतापति रामचद्रजी का ही है, जैसे बच्चे का सहारा केवल माता ही है। हे कृपालु, रामचद्रजी, मेरी हिम्मत की प्रशसा तो कीजिए, क्योकि मुझे आपके नाम के भरोसे परिणाम की कुछ भी चिंंता नहीं है।

मूल—मोह-मद-मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारि सो,
बिसारि वेद लोक-लाज, ऑकरो अचेतु है।
भावै सो करत, मुँह आवै सो कहत, कछु
काहू की सहत नाहि, सरकस हेतु है।
‘तुलसी’ अधिक अधमाई हू अजामिल तें,
ताहू में सहाय कलि कपट-निकेतु है।
जैबे को अनेक टेक, एक टेक ह्वैबे की, जा
पेट प्रिय पूत-हित रामनाम लेतु है॥८२॥

शब्दार्थ—मोह-मद-मात्यो= अज्ञानता रूपी मद अर्थात् शराब से उन्मत्त हूँ। रात्यो= आसक्त, अनुरक्त, कुमति-कुनारि= कुबुद्धि रूपी वेश्या। बिसारि= भुलाकर। आँकरो= गहरा। अचेतु= बेसुध। भावै= जो अच्छा लगता है। सरकस= सरकश, प्रबल। हेतु= कारण। अधमाई= नीचता। कपट-निकेतु= कपट का घर। जैबे को= नष्ट होने को। अनेक टेक= अनेक आश्रय हैं, अनेक कारण हैं। टेक= आसरा। ह्वैबे को= भलाई होने के लिए। पेट-प्रिय-पूत-हित= पेट रूपी प्रिय पुत्र के लिए।

भावार्थ—(तुलसीदास अजामिल से अपना रूपक बाँधते हैं) अजामिल शराब में मस्त रहता था, मैं (तुलसीदास) अज्ञानता में मस्त रहता हूँ। अजामिल सदा वेश्याओ से आसक्त रहता था, मैं कुबुद्धि में रत रहता हूँ। उसने वेदमार्ग भुला दिए थे, मैंने लोक लाज छोड़ दी है। उसकी