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कवितावली


लगाया। करना-हित= करुणा के लिए है। नाम सुहेत जो देत दगाई= नाम से प्रेम करने मे जो धोखा करते थे, अर्थात् जो धोखे से भी राम का नाम नहीं लेते थे। खीझीय= अप्रसन्न होइए। रीझीय= प्रसन्न होइए। तुलसीहु सो= तुलसीदास से भी। सगाई= सबध, प्रेम।

भावार्थ—अजामिल ने क्या योग किया था? वेश्या की बुद्धि क्या कमी आपके प्रेम में अनुरक्त हुई थी? व्याध (वाल्मीकि) की साधुता को क्या कहे, वह तो भारी अपराधो मे ही जनाई पडती थी अर्थात् वह नरहत्या को ही अच्छी बात समझता था। दयालु रामचद्रजी की दया दया करने के लिए है अर्थात् अकारण ही दयापात्र के ऊपर दया करना रामचद्रजी का काम है)। उनका नाम जपकर जो उनसे अपने ऊपर करुणा कराना चाहता है वह तो उनसे दगा ही करता है अर्थात् उनको कलकित्त करना चाहता है (कि रामजी नाम जपने पर दया करते है) तुलसीदास कहते हैं कि हे भगवान्, मै आपको बलैया लूँ, मुझसे भी वही नाता है (अर्थात् पापी हूँ अतः अकारण ही मुझ पर दया कीजिये)। अतः आप मुझसे अप्रसन्न क्यों होते हैं? मेरे ऊपर तो आपको निश्चय अकारण कृपा करनी चाहिए क्योंकि मै यह दावा नहीं करता कि मै आपका नाम जपता हूँ)।

मूल—
 

जे मद-मार बिकार भरे ते अचार-विचार समीप न जाहीं।
है अभिमान तऊ मन में जन भाखिहै दूसर दीन न पाहीं?
जो कछु बात बनाइ कहौं 'तुलसी' तुम तें तुम हौ उर माहीं।
जानकी जीवन जानत हौ हम है तुम्हरे, तुममें सक नाहों॥९४॥

शब्दार्थ—मद-मार-विकार भरे= घमंड और कामदेव के विकार से भरे हुए, अर्थात् मदोन्मत्त और कामपीड़ित। अचार-विचार= (मुहावरा) धार्मिक, कृत्य, शौच, पूजा पाठ आदि। जानकी-जीवन= जानकी के प्राणनाथ (रामचन्द्रजी)। सक नाही= इसमे कुछ सदेह नही।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि जो मदोन्मत्त और काम-पीड़ित हैं वे धार्मिक कृत्यों के पास भी नहीं फटकते। तब भी अपने मन मे अभिमान रखते हैं कि यह ज़न दूसरे से दीन वचन न बोलेगा (तात्पर्य यह कि घमंड के मारे औरों को तुच्छ समझकर उनसे बोलने में भी अपनी हीनता समझते