पृष्ठ:कवितावली.pdf/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७३
उत्तरकांंड


है) यदि मैं आपसे कुछ झूठ कहता हूँ तो आप मेरे हृदय में हैं ही (अतएव झूठ या सच आपसे छिपा नहीं रहेगा)।हे सीतापति रामचद्रजी, आप जानतें ही हैं कि मैं आपका ही हूँ और आपकी शरणागतपालकता में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है।

मूल—
 

दानव देव अहीस महीस महामुनि तापस सिद्ध समाजी।
जाचक, दानि दुतीय नही तुम ही सबकी सब राखत बाजी॥
एते बड़े तुलसीस तऊ सबरी के दिए वितु भूख न भाजी।
राम गरीबनेवाज! भए हौ गरीब-नेवाज गरीब नेवाजी॥६५॥

शब्दाथे— अहीस= शेषनाग आदि बडे़ बडे़ सर्पं। महीस= राजा लोग। महामुनि= बड़े बड़े मुनि। तापस= तपस्वी। समाजी= साप्रदायिक जन। सब बाजी राखत= सच कार्य निभाते हो, सब मनोरथ पूर्ण करते हो। गरीब (अ०)= दीन। नेवाज (फा०)= रक्षक। गरीब नेवाज= दीनदयालु।

भावार्थ— हे रामचद्रजी! दानव, देवता बडे़ बड़े सर्पों के राजा, राजा लोग, बड़े बडे़ मुनि-जन तपस्वी, सिद्ध और अन्य सम्प्रदायों के लोगों समेत सारा संसार मॉगनेवाला है। पर दानी आपके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं; आपही सब याचकों के सपूर्ण मनोरथो को पूर्ण करते हैं। आप ऐसे महानुभाव हैं, तब भी शबरी के दिए हुए (जूठे बेर खाए बिना आपकी भूख न मिटी। अतएव हे दीनो के रक्षक रामचन्द्र जी! आप दीनो की रक्षा करके ही दीनदयालु कहलाए हैं।

अलंकार—विधि।

मूल—
(मनहरण कवित्त)


किसबी, किसान-कुछ, बनिक, भिखारी, भाट
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-बन अहन अखेटकी।
ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि,
पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी।

१६