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कवितावली

‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की॥६६॥

शब्दार्थ—किसबी= परिश्रमी, मजूर। भाट= गा-गाकर मॉगनेवाले। चाकर= नौकर, सेवक। चार= हलकारे। चेटकी= तमाशा करनेवाले, बाजीगर। पेट को= पेट भरने के लिए, आजीविका करने के लिए। अटत= भटकते हैं। अहन= दिन दिन भर (स० अहः=दिन) अखेटकी= शिकारी। पेट ही को पचत= पेट भरने के लिए मरे मिटते हैं। बेटकी= बेटी। धनस्थामा= काला बादल ('घनस्याम' शब्द यहाँ पर साभिप्राय है। आग बुझाने के लिए समचद्रजी को 'घनस्याम' कहना अति ही उपयुक्त हुआ है)। बड़वागि= समुद्र की अग्नि। आगि पेट की= जठराग्नि।

भावार्थ—मजदूर, किसानो का समूह, बनिये, भिखारी, भाट, नौकर, चचल नट, चोर, हलकारे, बाजीगर आदि सब लोग पेट भरने के लिए ही पढ़ते हैं और (पेट भरने को ही) अपने मन से अनेक गुणो को गढ़ते हैं (अर्थात् अनेक उपाय करते हैं), (पेट ही के लिए) पहाड़ों पर चढते हैं और (पेट ही के लिए) शिकारी लोग घने वनों में दिन भर भटकते फिरते हैं। भले बुरे सब प्रकार के कर्म और धर्म-अधर्म करके पेट के लिए मरे मिटते हैं। यहाँ तक कि पेट के लिए अपने बेटा-बेटी तक को बेच देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यह पेट की अग्नि (जठराग्नि) बढ़वाग्नि से भी बड़ी है और केवल घने बादल रूपी रामचद्रजी से ही बुझ सकती है।

अलंकार—‘घनस्याम’ में परिकर अलकार है।

मूल—खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका-बिहीन लोग सीद्यमान, सोचबस,
कहैं एक एकन सों “कहाँ जाई, का करी?”
बेद हू पुरान कही, लोकहू बिलोकियत,
सॉकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबधु!
दुरित-दहन देखि 'तुलसी' हहा करी॥६७॥