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उत्तरकांंड

शब्दार्थ—सीद्यमान= (स०) दुखित। साकरे= सकट के अवसर पर। दारिद-दसानन= दारिद्रय रूपी रावण ने। दुनी= दुनिया। दबाई दुनी= संसार को पीड़ित किया है। दुरित-दहन= पापो को जलानेवाला। हहा करी= विनती करता है।

भावार्थ—तुलसीदास कदत है कि हे रामचद्रजी, मे आपकी बलि जाऊँ, अब ऐसा कुसमय आ गया है कि किसान की तो खेती नहीं लगती, भिखारी को भीख नहीं मिलती, बनिये के पास बाणिज्य का साधन नही और नौकर को कही नौकरी नहीं मिलती। इस प्रकार जीविका से हीन होने के कारण सब लोग दुःखित हे और शोक के वश होकर एक दूसरे से कहते हैं कि कहाँ जायँ (कुछ नहीं सूझ पडता)। हे रामजी, वेद और पुराणों मे भी कहा है और संसार में देखा भी जाता है कि सकट पड़ने पर आपने सब पर कृपा की है। दरिद्रता रूपी रावण ने संसार को पीडित किया है, अतः हे दीनबधु रामचन्द्रजी, आपको पाप नाशक समझकर मैं विनती करता हूँ।

अलंकाररूपक (दारिद-दसानन)।

मूल—कुल, करतूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन,
जोबन जरत जुर, परै न कछू कही।
रामकाज कुपथ, कुसाज, भोग रोग ही के,
बेद-बुध विद्या पाइ बिबस बलकही।
गति तुलसीस की लखै न कोऊ जो करत,
पब्बइ ते छार, छारै पब्बइ पलक ही।
कासों कीजै रोष? दोष दीजै काहि? पाहि राम।
कियो कलिकाल कुलि खलल खलक ही॥९८॥

शब्दार्थ—कुल= वश। करनूति= अच्छे काम, बड़े बड़े काम। भूति= ऐश्वर्य। जुर= ज्वर। बिबस= बेबस होकर। बलकही= प्रलाप करते है। तुलसीस= श्रीरामजी। पब्बह= पर्वत। कुलि= समस्त। खलक (अरबी)= संसार। खलल= बाधा, अस्त-व्यस्त दशा।

भावार्थ—>यौवन रूपी ज्वर मे वश-मर्शदा, पुरुषो के अच्छे काम, ऐश्वर्य, सुयश, सुन्दर रूप और गुण सब जल रहे हैं (अर्थात् युवावस्था