पृष्ठ:कवितावली.pdf/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७६
कवितावली


पाकर लोग अविचार से ये सब नष्ट कर डालते है)। कुछ कहा नहीं जाता कि क्या होगा। (यौवन रूपी ज्वर मे) राज्याधिकार कुपथ्य है, उसका बुरा सामान भोग करना रोग को बढ़ाना है। (ज्वर मे कुपथ्य हुआ और रोग बढा तब) वेदपाठी जन (विद्वान् लोग) विद्या पाकर विवश होकर अडबड बकने लगते हैं (तात्पर्य यह कि जवानी, अधिकार और विद्या पाकर लोगों को कलिकाल मे त्रिदोष ही हो जाता है), (परंतु) रामजी की महिमा कोई नहीं जानता, जो पर्वत को छार और छार को एक पल मात्र मे पर्वत बना देते हैं। अतः हे रामजी, मेरी रक्षा करो। मै किससे क्रुद्ध हूँ और किसको दोष दूँ कलियुग ने तो सारे संसार की दशा को अस्तव्यस्त कर डाला है।

अलंकार—रूपक (प्रथम दो चरणो में)।

मूल—बबुर बहेरे को बनाय बाग लाइयत,
रुँँधिबे को सोई सुरतरु काटियतु है।
गारी देत नीच हरिचंद हू दधीचि हू को,
आपने चना चवाइ हाथ चाटियतु है।
आप महा पातकी हॅसत हरि हर हू को,
आपु है अभागी, भूरिभागी डाटियतु है।
कलि को कलुष, मन मलिन किये महत,
मसक की पॉसुरी पयोधि पाटियतु है॥६६॥

शब्दार्थ—रुँधिबे को= रक्षार्थ बाग को घेरने के लिए। सुरतरु= कल्पवृक्ष। भूरिभागी= भाग्यवानो को। डातियतु है= फटकारते हैं। कलुष= (स०) पाप। मसक= मच्छर। पॉसुरी= हड्डी, पसली। पयोधि= समुद्र।

भावार्थ—इस कलियुग मे नीच लोग बबूल और बहेड़े के बागो को अच्छी प्रकार लगाते हैं और उस बाग की रक्षा करने के लिए बारी लगाने के लिए कल्प वृक्ष को काटते हैं (ऐसे निर्बद्ध हैं) हरिश्चंद्र और दधीचि के समान दानियों को गाली देते हैं, पर आप इतने कजूस हैं कि चना चबाकर मी हाथ चाटते हैं (कि कहीं कुछ लगा तो नहीं है)। आप तो बड़े पापी हैं पर सपूर्ण पापों को नाश करने में समर्थ विष्णु और शिवजी की भी हॅसी करने सकते हैं। आप तो भाग्यहीन हैं पर बड़े बड़े भाग्यवानो को भी ऐसी फटकार