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उत्तरकांंड

भावार्थ—प्रतिदिन गंगाजी का जल पीता हूँ और सीताराम चेण्दो नाम लेता हूँ। हे कलि! मेरा तुमसे लेना देना कुछ नहीं है (अर्थात् मेरा तुमसे कुछ भी सरोकार नहीं), अतः मैं भूलकर भी कभी तुम्हारी शोर नहीं देखूँगा। अतिम फल समझकर मुझ पर अत्याचार करो; अन्त में तुम्हीं पछताओगे. पर मै तुमसे न डरूँगा। जैसे गारुड़ ने ब्राहाण को न वचा-साकने के कारण वमन कर दिया था वैसे ही मै भी तुम्हारे पेट में न पचूँँगा (और अन्त में तुमको मुझे छोड़ ही देना पड़ेगा।)

नोट— गरुड़ ने एक समय धोखे से एक ब्राह्मण को निगल लिया था। उससे उनके पेट में जलन पैदा हुई। अन्त में उन्हें उसे अपने पेट से निकाल देना पड़ा।

मूल— राजमराल के बालक पेलि कै, पालत लालत खूसर को।
सुचि सुन्दर सालि सकेलि सुबारि कै बीज बटोरत ऊसर को।
गुन-ज्ञान गुमान भभेरि बड़ो, कलपद्रुम काटत मूसर को।
कलिकाल बिचार अचार हरो, नहि सूझै कछू घमघूसर को॥१०३॥

शब्दार्थ—राजमराल= राजहस। पेलि कै= ठेलकर। खूसर= उलुक, खूसट। सुचि= (शुचि) पवित्र। सालि= (शालि) धान। सकैलि= (स० संकलन से) बटोरकर। सुबारि कै= जलाकर। ऊसर= अनुत्पादक भूमि। गुमान= घमंड। भभेरि= मूर्ख। मूसर को= मुशल बनाने के लिए। बिचार= धर्माधर्म का विचार। अचार= तप शौचादि का आचरण । धूसर=निबुद्धि।

भावार्थ— सुन्दर राजहंसों के बालकों को (अर्थात् विवेकियों को) ठेलकर अब के लोग उल्लू के बच्चो का लालन पालन करते हैं, सुन्दर बानी की एकत्र करके उनको बलाकर ऊसर भूमि में खाने के लिए दाने बटोरते फिरते हैं। उन्हें गुण और ज्ञान का बड़ा घमंड है पर मूर्ख इतमें बड़े हैं कि मुशल बनाने के लिए कल्पवृक्ष का पेड़ काटते हैं। इस कलियुग ने उनेको सब आचार विचार हर लिया है पर बेवकूफों को कुछ सूझता नहीं।

मूल—
 

कीबे कहा पढ़िबे को कहा फल बूझि न बेद को भेद विचारै।
स्वारथ को परमारथ को कलि कामद नाम को राम बिसारै।