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कवितावली

बाद विवाद बिसाद बढाइ कै छाती पराई औ आपनी जारै।
चारिहु को,छहु को,नव को,दस आठ को,पाठ कुकाठ ज्यो फारै॥१०४॥

शब्दार्थ—स्वारथ= सासारिक सुख। परमारथ= मोक्ष। कामद= सब कामनाओ को देनेवाला। बिसारै= भुला देता है। बिषाद= दुःख। चारिहु= चारो वेद (ऋक्, यजुः, साम, अथर्वं)। छहु= छः शास्त्र (मीमासा, साख्य, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदात)। नव= नौ व्याकरण (इद्र, चद्र, काशकृत्स्न, शाकटायन, पिशालि, पाणिनि, अमर, जैनेन्द्र, सरस्वती) दस-आठ= अठारह पुराण। पाठ कुकाठ ज्यो फारै= इन सब का पढना ऐसा निष्फल है जैसा कुकाठ का फाड़ना निष्फल होता है, क्योकि कुकाठ सीधा नहीं फटता।

भावार्थ—क्या करना चाहिए, क्या पढना चाहिए, यह समझ बूझ कर वेद का भेद न विचारा तो नर-देह पाकर क्या किया? और इस प्रकार बिना विचारे पढ़ने का क्या फल रहा? यदि स्वार्थ और परमार्थ के देनेवाले, और कलियुग के सब मनोरथो के पूर्ण करनेवाले राम के नाम को भुला दिया, और व्यर्थ के वादविवाद से दुख बढाकर अपनी और दूसरों की भी छाती जलाई अर्थात् अपने को और दूसरों को भी चिंतित कर दिया तो चारो वेदो, छहों शास्त्रों, नवो व्याकरणो और अठारहो पुराणो का पढ़ना ऐसा ही निष्फल हुआ जैसा कुकाठ का फाड़ना।

मूल—
 

आगम बेद पुरान बखानत मारग कोटिक जाहि न जाने।
जो मुनि ते पुनि आपुहि आपु को ईस कहावत सिद्ध सयाने।
धर्म सबै कलिकाल असे, जप जोग बिराग लै जीव पराने।
को कार सोच मरै,‘तुलसी’ हम जानकीनाथ के हाथ बिकाने॥१०५॥

शब्दार्थ—आगम= शास्त्र। लैजीव पराने= प्राणों को लेकर अर्थात् डर के मारे भाग गए।

भावार्थ—शास्त्र, वेद और पुराय वर्णन करते हैं कि मोक्ष-साधन के अनेक उपाय हैं परन्तु वे तो समझ में नहीं पाते और जो मुनिगण हैं वे अपने ही को ईशवर और सयाने सिद्ध कहलवाते हैं, परन्तु इस कलियुग ने सब धमों को बस लिया है; जाप, योग, विराग आदि तो डर के मारे लोप हो गए हैं।