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१८१
उत्तरकाण्ड

उत्तरकांड १८१ अतएव तुलसीदास कहते है कि ( जन मोक्ष-साधन से उपायों की यह दशा है तो ) व्यर्थ की चिता मे पड़कर अपने को क्यों कष्ट दे १ हम तो रामचंद्रजी के हाथो बिक गए हैं, अथति रामचद्रजी की शरण में हो गए हैं ( हमें किसी की कुछ परवाह नहीं है)। मूल- धूत कहो, अवधूत कही, रजपूत कहो, जोलहा कहौ कोऊ। काहू की बेटी सों बेटा न ब्यांहब, काहू की जाति बिगारौं न सोऊ। 'तुलसी' सरनाम गुलाम है राम को, जाको मचै सो कहौ कछुओंऊ। मॉगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ ॥१०॥ शब्दार्थ-धूत =धूर्त (छली)। अवधूत = जोगी, भिखमंगा। रजपूत = क्षत्रिय (स राजपुत्र से) जोलहा- ततुवाय, कपड़ा बुननेवाली एक जाति- विशेष । सरनाम= प्रसिद्ध । गुलाम (अ०)सेवक | रुचै- अच्छा लगे। श्रोऊ- वह भी । मसीत = मसजिद (देवालय)। "लेना एक न देना दो'- (एक लोकोक्ति है ) कुछ भी सरोकार नही। भावार्थ-कोई चाहे मुझे धूर्त कहे, चाहे भिखमंगा कहे, चाहे क्षत्रिय कहे, चाहे जोलहा कहे, मुझे कुछ परवा नहीं। न मुझे किसी की लड़की से अपने लड़के का व्याह ही करना है (जो मै पतित होने का डर करूँ), न मैं क्सिी जाति के साथ संपर्क रख के उसे बिगाड़ गा जिसको अच्छा लगे वह वही कहे । तुलसी तो रामचद्रजी का प्रसिद्ध सेवक है। मॉगकर स्वाना और निश्चि । होकर देवालय में सो रहना, यही मेरा काम है; और किसी से मेरा कुछ प्रयोजन नही (न मै कलिकाल की 'गुलामी लूँगा, न 'राम' नाम के दोनो अक्षर छोड़ गा)। ( मनहरण कवित्त) मेरे जाति पॉति, न चहौं काहू की जाति पॉति, , मेरे कोऊ काम कों, न हौं काहू के काम को । लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब, .. ___भारी है भरोसों 'तुलसी' के एक नाम को। वति ही अयाने उपखानों नहिं बूझै लोग, "साह ही को गोत मोत होत है गुलाम को।'