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उत्तरकांड


सजन तो मुझे (तुलसीदास को) बड़ा भारी सज्जन समझते हैं और दुष्ट खोग दुर्जन ही समझते हैं। इस प्रकार करोड़ों भॉति की झूठी सच्ची चर्चाएँ उठती रहती हें। पर मैं न किसी से कुछ चाहता हूँ, न किसी के विषय में कुछ भला बुरा ही कहता हूँ। सबका कथन सुन लेता हूँ, चित्त में कोई घबराहट नही है। मेरा तो भला-बुरा सब श्रीरामचद्रजी के ही हाथ है। रामचंद्रजी की भक्ति भूमि है जिसमे मेरी बुद्धि दूब होकर जमी है (अर्थात् मेरी बुद्धि रामचद्रजी की भक्ति में ही लगी हुई है)।

मूल—जागै जोगी जंगम, जती जमाती ध्यान धरैं,
डरै उर भारी लोभ मोह कोंह काम के।
जागै राजा राजकाज सेवक समाज साज
सौचै सुनि समाचार बड़े बैरी बाम के।
जागै बुध बिद्याहित पंडित चकित चित,
जागै लोभी लालच धरनि धन धाम के।
जागै भोगी भोग ही, बियोगी रोगी सोगबस,
सोबै सुख 'तुलसी' भरोसे एक राम के ॥१०६॥

शब्दार्थ—जोग= योगी। जगम= भ्रमण करनेवाले संन्यासी। जती= (यती) संयमी। जमाती= समूह में रहनेवाले संन्यासी। बाम= कुटिल। भोग ही= भोग करने के लिए।

भावार्थ—योगी, जगम, यती, जमायती आदि संन्यासी जागते रहते हैं क्योकि वे एक तो परमेश्वर के ध्यान में लगे रहते हैं और दूसरे लोभ, मोह, क्रोध और काम से हृदय में सदा डरते रहते हैं (कहीं वे उनको अपने वश मे न कर ले, इस भय से वे सदा सावधान रहते हैं। राजा लोग अपने राजकाज की चिता के कारण जागते रहते हैं और सेवकगण अपने कामकाज की देख-भाल के लिए जागते रहते हैं; वे अपने बड़े कुटिल शत्रु के समाचार सुनकर (उसके निवारण का उपाय) सोचते रहते हैं। बुद्धिमान् पंडित जन सावधान चित्त से विद्योपार्जन के लिए जागते रहते हैं। लोभी जन, भूमि और घर के पाने के लालच के वश होकर जागते रहते हैं। सुख-भोग करनेवाले सुख भोग करने के लिए और विरदी और रोगी शोक के