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१८६
कवितावली

१८६ कवितावली अलंकार-अाशिषालकार ( केशव के मत से) मूल-जय जयत-जयकर, अनंत, सज्जन-जन-रजन । जय बिराध-बध-बिदुप, बिबुध-मुनिगन भय-भंजन । जय निसिचरी-विरूप-करन रघुबंस-विभूपन । सुभट चतुर्दस-सहस-दलन निसिरा खर दूषन । जय दंडकबन-पावन-करन तुलसिदास' संसय-समन । जग बिदित जगतमनि जयति जय जय जय जय जानकिरमन ।।११।। शब्दार्थ-अयन्त =इंद्र का पुत्र । अनत = जिसका श्रत न पाया जाय । सजन-जन-रजन = सज्जन गणो को अानदित करनेवाले । बिराध-बध बिदुष- बिराध नामक राक्षस के वध करने में निपुण । विबुध%3(विशेष प्रकार से बुद्धिमान् ) देवता। निसिचरी-बिरूप-करन = शूर्पनखा को (उसके नाक कान काटकर) कुरूपा कर देनेवाले । सुभट योद्धा। पायन - पवित्र । ससथ- समन =(संशय-शमन) सदेह को दूर करनेवाले । विदित =प्रख्यात, प्रकट । बगतमनि = ससार में सबसे श्रेष्ठ । भावार्थ-जयंत पर जय प्राप्त करनेवाले, अन त और सज्जनगणों को श्रानन्दित करनेवाले रामचंद्रजी की जय हो । विराध को मारने मे पडित और देवता और मुनिगण का भय दूर करनेवाले रामचद्रजी की जय हो । शूर्पनखा को कुरूप करनेवाले रघुवंश के विभूषण-स्वरूप रामचद्रजी की जय हो। त्रिशिरा, खर, दूषण के चौदह सहस्र योद्धाओं को मारनेवाले रामचद्रजी की जय हो । दडकारण्य को पवित्र करनेवाले और तुलसीदास के सब सदेहो को दूर करनेवाले रामचन्द्रजी की जय हो । ससार मे प्रख्यात जगत्मारिए सीतापति रामचंद्रजी की जय हो, जय हो, जय हो, जय हो। मुल-जय मायामृग सथन गीध-सबरी-उद्धारन । जय कबंध-भूदन बिसाल तरु-ताल-बिदारन । दवन बालि बलसालि, थपन सुग्रीव, संत-हित। कपि-कराल-भट-भालु कटक पालन, कृपालु चित । जय सियबियोग-दुखहेतु-कृत-सेतु-बंध बारिप-दमन । दससीस-बिभीषन अभयप्रद जय जय जय जानकिरमन ॥११४॥