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उत्तरकांंड

शब्दार्थ—मायामृग-मथन= माया से हरिण बने हुये मारीच को मारने वाले। कबंध-सूदन= कबंध नामक राक्षस को मारनेवाले। तरुताल= सात ताल के वृक्ष। दवन= (दमन) मारनेवाले। थपन= स्थापित करनेवाले। सत-हित सज्जनों के हितकर्ता। कटक= सेना। सियबियोग दुख-हेतु-कृत-सेतु बघ= सीता के वियोग के दुःख के कारण किया है सेतु बध जिसने ऐसे रामचद्रनी (बहुव्रीहि समास)। बारिधि= समुद्र। दससीस-विभीषन अभयप्रद= रावण से भयभीत विभीषण को अभय देनेवाले।

भावार्थ—कपट के मृग को मारनेवाले, गृद्धराज जटायु और शबरी का उद्धार करनेवाले रामचद्रजी की जय हो। कबध नामक राक्षस को मारनेवाले और बड़े भारी (सात) ताल के वृक्षों को (एक बाण से) गिरा देनेवाले रामचद्रजी की जय हो। बली बालि को मारनेवाले, सुग्रीव को राजगद्दो पर स्थापित करनेवाले, सज्जनो के हितकर्ता, वानर और भयकर योद्धा भालुओं की सेना के रक्षक, दयालु रामचद्रजी जी की जय हो। सीता के वियोग के दुःख के कारण सेतु बँधानेवाले और समुद्र का दमन करनेवाले रामचद्रजी की जय हो। रावण द्वारा भयभीत विभीषण को अभय देनेवाले जानकीपति रामचद्रजी की जय हो, जय हो, जय हो।

मू०—कनक-कुधर केदार, बीज सुंदर सुरमनि बर।
सींचि कामधुक-धेनु सुधामय पय बिसुद्धतर।
तीरथपति अंकुर-सरूप, जच्छेस रच्छ तेहि।
मरकत-मय साखा-सुपत्र, 'मंजरि सुलच्छि जेहि।
कैवल्य सकल फल कल्पतरु सुभ सुभाव सब सुख बरिस।
कह 'तुलसिदास' रघुवंसमनि तौ कि होहि तुव कर सरिस॥११५॥

शब्दार्थ—कनक-कुधर-केदार= सुमेरु पर्वत रूपी क्यारी में। कनक= सोना। कुधर= (कु= पृथ्वी+धर) पर्वत। केदार= क्यारी। सुरमनिवर= चितामणि। कामधुक= कामनाओ की दुहनेवाली अर्थात् मनोरयों को पूर्ण करनेवाली। धेनु= गाय। कामधुकधेनु= कामधेनु नाम की देवताओं की एक गाय। सुधामय= अमृतमय। पय= दुग्ध। बिसुद्धतर= अति शुद्ध। तीरथपति= प्रयागराज। जच्छेस= यक्षो के स्वामी, कुवेर। रच्छ= रक्षा करते हो। मरकत= पन्ना। मजरि= बौर। लच्छि