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कवितावली

एक "उत्तरकांड शब्दार्थ-भौह-क्रमान-सॅधान सुठान =भौह रूपी धनुष से अच्छे प्रकार किया गया है संघान जिनका । नारि-बिलोकनि-बान-स्त्रियो के कटाक्ष रूपी बाण | कोप-कृसानु - कोप रूपी अग्नि । गुमान-अवाँ = अहकार रूपी भट्ठी में। ऑच न ऑचे गरमी से सतप्त न हुए।। भावार्थ-जो साधु स्त्रियो के भौह रूपी धनुष मे अच्छे प्रकार सधान किए हुए कटाक्ष रूपी बाणों से बच गए हो (अर्थात् उनके लक्ष्य न हुए हो). अहकार रूपी भट्ठी में क्रोध रूपी अग्नि की आँच से जिनके मन घड़े की तरह न तपे हों, लोम रूपी नट के वश मे होकर जो ससार मे अनेक प्रकार नाच न नाचे हो (अर्थात् लोभ के कारण जिन्होंने अनेक भाँति के कृत्य न किए हों), तुलसीदास कहते हैं कि वे ही माधु रामचद्रजी के सच्चे सेवक हैं: यो तो सब साधु अच्छे कहे ही जाते हैं। (मनहरण कवित्त) भेष सुबनाइ, सुचि बचन कहैं चुवाइ, जाइ तौ न जरनि धरनि धन धाम की। कोटिक उपाय करि लालि पालियत देह, मुख कहियत गति राम ही के नाम की। प्रगटै उपासना, दुरावै दुरबासनाहि, ___ मानस निवास-भूमि लोभ, मोह काम की। राग रोष ईरषा कपट कुटिलाई भरे, __ 'तुलसी' से भगत भगति चहैं राम की ! ॥११॥ शब्दार्थ-मेष सुबनाइ सुन्दर साधुओं का सा वेष बनाकर । चुवाइ% शात और मधुर करके । गति = पहुँच, शरण । उपासना- पूजा-पाठ, भक्ति। दुरावै-छिपाता है। दुरबासनाहि दुर्वासना को, बुरी इच्छाओ को। मानस =मन । निवास-भूमि-रहने का स्थान । राग = साचारिक विषयों से प्रेम । रोष - क्रोध । ईरषा-(स० ईर्ष्या) पराई उन्नति देखकर जलना। भावार्थ-मन से पृथ्वी, धन और घर की चिता नही छूटती, पर सुन्दर साधुओं का वेष बनाकर मुख से शात और मीठे वचन बनाकर कहते हैं । करोड़ों प्रकार के भले बुरे उपायों से अपनी देह का लालन-पालन करते हैं पर मुख से कहते हैं कि हम तो राम नाम की शरण हैं। उपासना को तो प्रगट