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उत्तरकांंड

भावार्थ—श्रीरामचद्रजी धर्म की मर्यादा हैं। उन्होने संसार का मंगल करने और पृथ्वी का भार हरण करने के लिए मनुष्य का अवतार लिया है। प्रभु की चाल है कि विश्वास और प्रीति का पालन करते हैं। लोक और वेदों की मानरक्षा करना रामचंद्रजी का प्रण है। तुलसीदास कहते हैं कि हें रामचद्रजी, आप विभीषण और वानरो के ऋणी हैं, यह कथा सुनकर मुझ सेवक को ईर्ष्या होती है (कि मेरे भी ऋणी क्यो न हुए)। अतएव, मैं आपकी बलैया लूँ, अपने प्रण की रक्षा करके जो हो सके वही कीजिए। मैं तो आपके घर का घरजाया सेवक हूँ।

मूल—नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर,
सब ही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम बार यहि मेरी ओर चखकोर,
ताहि लगि रक ज्यों सनेह को ललात हौं।
'तुलसी' बिलोकि कलिकाल की करालता,
कृपालु को सुभाव समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भॉति को, तिलोकनाथ लोकबस,
आपनो न सोच, स्वामी-सोच ही सुखात हौं॥१२३॥

शब्दार्थ—नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर= उर (में) महाराज के नाम के सग नीको निबाह कीजै। बार यहि= इस बार। चखकोर कीजै= सुदृष्टि फेरिए। ताहि लगि= उस सुदृष्टि के लिए। रक ज्यों= दरिद्र की तरह। सनेह= घी। ललात हौ= इच्छुक रहता हूँ। लोक एक भॉति को= लोग बहुत बुरे हो गए हैं। तिलोकनाथ लोकबस= क्या त्रिलोकानाथ भी लोगो की तरह हो गए?

भावार्थ— रामचद्रजी के नाम के साथ अच्छे प्रकार निर्वाह करनेवाला (अर्थात् रामनाम जपनेवाला) सबको मन से अच्छा लगता है, पर मैं लोगों को अच्छा नही लगता, अतः हे रामचद्रजी, इस बार मेरी ओर अपनी शुभ दृष्टि फेरिए। आपकी उस सुदृष्टि के लिए मै उसी प्रकार लालायित रहता हूँ जैसे दरिद्री घृत के लिए (अच्छे पकवानों का) इच्छुक रहता है। तुलसीदास कहते हैं कि कलियुग की इस करालता को देख कर (अर्थात् घोर कलियुग देखकर) और कृपालु रामचद्रजी का स्वभाव समझकर (अर्थात् रामचन्दजी</small