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कवितावली


पापियों का उद्धार करनेवाले है यह समझकर) मै सकुचता हूँ (कि रामचन्द्रजी किस किस का उद्धार करेंगे और उनमें मेरा नबर कैसे आवेगा?)। संसार के लोग तो बहुत बुरे हो गये हैं, पर क्या त्रिलोकीनाथ भी वैसे ही हो गए हैं? हे स्वामी, मुझे अपने बुरे होने का सोच नही, मै तो आपके सोच से सूखा जाता हूँ (कि लोग यह कहने लगेगे कि रामजी भी कलियुग में अपना सुभाव छोड़कर ऐसे करुणारहित हो गए कि अपने भक्त तुलसी को न तार सके)।

नोट—निहायत उत्तम व्यग्य है।

मूल—तौ लौं लोभ-लोलुप ललात लालची लबार,
बार बार लालच धरनि धन धाम को।
तब लौं बियोग-रोग सोग, भोग जातना को,
जुग सम लगत जीवन जाम जाम को।
तौ लौं दुख-दारिद दहत अति नित तनु,
‘तुलसी’ है किकर बिमोह कोह काम को।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख,
जौ लौं जग भयो न बजाइ राजा राम को॥१२४॥

शब्दार्थ—तौ लौं= तब तक। लोलुप= इद्रिय-सखों का लालची। लबार= झुठा। जातना= (स० यातना) कष्ट। जुग= युग। जाम=(याम) प्रहर। तनु= शरीर। किंकर= सेवक। निरापने= (निर्+आपने) अपने नहीं अर्थात् पराये। जन= भक्त। बजाइ= डके की चोट, खुल्लमखुल्ला। जौ लों= जब तक।

भावार्थ—तुलसीदास कहते हैं कि जब तक मनुष्य खुल्लमखुल्ला राजा रामचंद्रजी का भक्त नहीं हो जाता तभी तक वह इंद्रिय सख-लोलुप, टुकड़े-टुकड़े को लालायित्त रहनेवाला, धन-संपत्ति का लालची, बार बार झठ बोलनेवाला और पृथ्वी, धन तथा घर का लालची रहता है। तभी तक बियोग और रोग का शोक रहता है, तभी तक कष्ट भोगने पड़ते हैं, और पहर पहर का जीवन युग के समान प्रतीत होता है, तभी तक दुःख और दारिद्रथ नित्य ही शरीर को अतिशय कष्ट देते हैं, तभी तक वह लोभ, मोह, काम और क्रोध