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उत्तर कांंड

उसी स्थान पर उपस्थित हो जाते हैं। रामनाम के प्रताप की महिमा बड़ी भारी है। इसने खोटो को भी बहुमूल्य और छोटो को भी बड़ा कर दिया। यद्यपि सेवक तो एक से एक बढ़कर अनेक हुए जो तीनो तापों से दग्ध नहीं हुए, पर मैं तो प्रह्लाद का ही प्रेम श्लाघनीय मानता हूँ जिसने पत्थर से भी परमेश्वर को प्रकट करा दिया।

मूल
 

काढ़ि कृपान, कृपा, न कहूँ पितु काल कराल बिलोकि न भागे।
'राम कहाँ? 'सब ठाँउ है' 'खंभ में?' 'हाँ' सुनि हाँक नृकेहरि जागे।
बैरी विदारि भए बिकराल, कहे प्रहलादहि के अनुरागे।
प्रीति प्रतीति बढ़ी 'तुलसी' तब तें सब पाहन पूजन लागे॥१२८॥

शब्दार्थ―काढ़ि= निकालकर। कृपान= (सं० कृपाण) तलवार। ठाँउ= स्थान। नृकेहरि= नसिंह अवतार। जागे= प्रकट हुए। बिदारि= फाड़कर, विदीर्ण करके।

भावार्थ=हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए तलवार खीची। उसने अपने पुत्र पर कुछ भी कृपा न की, परन्तु प्रह्लाद भयकर काल के समान अपने पिता को देखकर भगे नहीं। हिरण्यकश्यप ने पूछा, "बता तेरा रक्षक राम कहाँ है (इस समय तुझे क्यो नहीं बचाता)?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया, "मेरे राम सर्वत्र विराजमान हैं।" हिरण्यकश्यप ने पूछा, "क्या इस (जिसमें प्रह्लाद को बाँधा था) खभे में भी है?" उसने उत्तर दिया, "हाँ।" प्रह्लाद की इस 'हाँ' को सुनते ही नरसिंह खभा फाड़कर प्रकट हो गए और हिरण्यकश्यप को अपने नखो से विदीर्ण करके बड़े भयकर बन गए, परन्तु प्रह्लाद की विनय से फिर भक्त के प्रेम के कारण शात हो गए। तुलसीदास कहते हैं कि तब से भगवान् पर सबका प्रेम और विश्वास बढ़ गया, और इसी कारण तब से लोग पत्थरो को (उनमे ईश्वर का अस्तित्व समझकर) पूजने लगे।

विशेष―तुलसीदासजी ने इस छंद द्वारा बड़ी युक्ति से मूर्तिपूजा का समर्थन किया है।

मूल-अंतरजामिहु ते बड़ बाहरजामि हैं राम, जे नाम लिये तें।
धावत धेनु पन्हाइ लवाई ज्यो बालक बोलनि कान किये ते।