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कवितावली

कवितावली ऊपर राजछत्र सदा छाया रहता था, छत्र की छाया मे चलने के कारण जिन पर धूल भी नहीं पड़ने पाती थी। भावार्थ-इस पृथ्वी मे अनेक बड़े बड़े राजा हुए हैं जिनके डर के कारण देवता शोच से सूख जाते थे। मनुष्य, दानव और देवताश्रो का सतानेवाला रावण, जिसने स सार में बुरा आयोजन किया, और दुर्योधनादिक बड़े बड़े प्रतापशाली राजा, जिनके ऊपर सदा राजछत्र तने रहते थे, केवल अभिमान के कारण धूल मे मिल गए । वेद और पुराणों ने भी कहा है. और सारा संसार भी इस बात को जानता है कि भगवान् को घमड अच्छा नही लगता। मूल--- जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी। नहिं जान्यो बियोग सो रोग है आगे झुकी, तब हौं तेहि सों तरजी। अब देह भई पट नेह के घाले सों, ब्योंत करै बिरहा दरजी। ब्रजराज-कुमार बिना सुनु, भृङ्ग अनङ्ग भयो जिय को गरजो॥१३३।। शब्दार्थ-ठई-ठानी । स्याम-कृष्ण । स्यानी%3D(स. अज्ञान चतुर। हौ-मुझे । बरजी-मना किया, प्रीति करने से रोका । जान्यौ=जानती है मुकी =नाराज हुई । तरजी-दड दिया, निरादर किया। पट = वस्त्र नेह के घाले सो= स्नेह करने से । ब्योंत करे-काट-छॉट करता है, दुबला बना देता है। बिरहा दरजी-विरह रूपी दरजी । भृक्ष-भौरा । अनंग-कामदेव । जिय को गरजी = प्राणो का ग्राहक । प्रकरण-कृष्णजी के मथुरा जाने पर गोपियाँ कृष्ण के विरह में व्याकुल थीं। कृष्ण ने उद्धवजी को गोपियो को समझाने के लिए भेजा। उद्धवजी उनको प्रेम-मार्ग छोड़कर योग-मार्ग मे जाने का उपदेश देने लगे। अतः प्रेम-मार्ग की उपासिका गोपियाँ उद्धव को भ्रमर मानकर उलाहना देती हैं। ऐसे काध्य को 'भ्रमर-गीत' कहते हैं । इसके आगे के २ छद और भी 'भ्रमर- गीत के हैं। भावार्थ-एक गोपी उद्धव को भ्रमर सज्ञा देकर कहती है-जब मेरे इन नेत्रों ने ठग कृष्ण से प्रीति लगाई तब चतुर सखी ने मुझे (कृष्ण से प्रीति करने से मना किया। उसने अप्रसन्न होकर कहा कि नहीं जानती कि आगे