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उत्तरकाण्ड

उत्तरकांड वियोग रूपी कोई रोग भी है। तब मैंने उसको निरादर रूपी दंड दिया। अब मेरा शरीर स्नेह करने के कारण वस्त्र के समान हो गया है और विरह रूपी दरजी उस वस्त्र की काट लॉट करता है (तात्पर्य यह है कि विरह के कारण मेरी देह दुर्बल होती जाती है)। हे भ्रमर । सुनो, नद के कुमार श्रीकृष्ण के बिना कामदेव हमारे प्राणों का ग्राहक हो गया है (अर्थात् कृष्ण के वियोग के कारण हमारे प्राण छूटना चाहते हैं )। जोग-कथा पठई, ब्रज को, सब सो सठ चेरी की चाल चलाकी । ऊधो जू क्यों न कहे कुबरी जो बरी नटनागर हरि हलाकी। जाहि लगै पर जाने सोई 'तुलसी' सो सुहागिनि नंदलला की। जानी है जानपनी हरि की, अब बांधियैगी कछु मोदि कला की ॥१३४॥ शब्दार्थ—पठई = भेजी । सठ चेरी = दुष्टा दासी अर्थात् कुब्जा, कुबड़ी । चाल चलाकी = ( मुहावरा ) धूर्तता, चालाकी की चाल । कुबरी - (१) कुबड़ी, (२) कु (बुरी)+बरी (ब्याहा)। जो= जिसको । बरी- ब्याहा । नटनागर चतुर खिलाड़ी। हलाकी मार डालनेवाला, घातक । जाहि लगै पर जानै सोई - जिस पर बीतती है वहीं जानता है। सुहागिनि = सौभाग्यवती । जानमनी = ज्ञानपना, ज्ञानीपन । हरि = कृष्ण । बॉ धियेगी= (हम भी) बाँधेगी। मोटि गठरी। भावार्थ-हे उद्धवजी । कृष्ण ने व्रज को ( श्रापके द्वारा हमें सिखलाने को ) योग की कथा भेजी है, वह सब उसी दुष्टा कुबड़ी की धूर्तता है, जिसने चतुर खिलाड़ी और घातक कृष्णा को भी एक दृष्टि देखते ही वरण कर लिया। भला वह कुबरी क्यो न ऐसा सदेश भेजे । परतु जिस पर बीतती है वही जानता है कि वियोग की व्यथा क्या पदार्थ है। वह तो कृष्ण की सौभाग्यवती ( सयोगिनी ) है। (हमारे वियोग के दुःख को क्या समझे)। अब हमने कृष्ण का शानीपन जान लिया है। ( वे उसकी कुबड़ी पीठ देखकर लुब्ध हो गए)। अतः हम भी किसी कला की गठरी अपनी पीठ पर बाँध लेगी। (मनहरण कवित्त) पठयो है छपद छबीले कान्ह कैहूँ कहूँ, खोजि कै खवास खासो कबरी सी बाल को।