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कवितावली


ज्ञान को गढ़ै या, बिनु गिरा को पढ़ैया, बार-
खाल की कढ़ैया, औ बढ़ैया उर-साल को।
प्रीति को बधिक, रसरीति को अधिक, नीति,
निपुन-बिबेक है, निदेस देसकाल को।
‘तुलसी’ कहे न बनै, सहे ही बनैगी सब,
जोग भयो जोग को, बियोग नंदलाल को॥१३५॥

शब्दार्थ— पठयो है= भेजा है। छपद = (सं० षट्पद) भ्रमर। छवीले= छबिवाले, सुँँदर। कैहूँ= किसी प्रकार से। कहूँ= कही से। खोजि कै= ढैढकर। खवास= सेवक। खासी= प्रसिद्ध। बाल= (सोलह वर्ष की स्त्री बाल कहलाती है) युवती स्त्री। ज्ञान को गढ़ैया= ज्ञान की बाते बनानेवाला। गिरा= बाणी बिनु गिरा को पढ़ैया= बिना वाणी के पढ़नेवाला। बारखाल को कढ़ैया= बाल की खाल खीचनेवाला। उर-साल को बढै़या= हृदय के कष्ट को बढानेवाला। प्रीति को वधिक= प्रीति की हत्या करनेवाला। अधिक= और भी अधिक (हत्यारे से भी बढ़कर)। निदेश= आज्ञा। जोग= संयोग, अवसर।

भावार्थ— छबीले कृष्ण ने, किसी प्रकार (बड़ी मुश्किल से) कही से खोजकर कुबड़ी के उत्तम सेवक को भ्रमण रूप से भेजा है। यह भ्रमर गढ़ गढ़ कर ज्ञान की बाते करनेवाला, बिना वाणी के ही पढ़नेवाला (केवल गुजार करनेवाला) बाल की खाल खीचनेवाला और हृदय की पीड़ा को बढ़ानेवाला है। यह प्रीति का वधिक है और इस रीति (श्रृङ्गार भाव) के लिए तो हत्यारे से भी बढ़कर है, नीति में निपुण और विवेकी है, सो यह बात देश और काल की आज्ञा के अनुसार ही है (हमारा समय ही ऐसा बुरा आ गया है) अतः इसकी बातों का उत्तर देना ठीक नहीं, सब सह लेना ही ठीक है, क्योकि जब नदलाल से वियोग हो गया, तब योग करने का सयोग आ ही गया। (अब उनके बियोग में योगिनी बनना ही उचित है)।

अलंकार—हेतु (द्वितीय)—'नंदलाल का वियोग ही योग का संयोग होने से।

मूल—हनुमान ह्वै कृपालु, लाड़िले लखन लाल,
भावते, भरत कीजै सेवक सहा य जू।