उत्तरकांड २०३ बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो, बिगरे ते आपु ही सुधारि लीजै भाय जू। मेरी साहिबनी सदा सीस पर बिलसति, देबि क्यों न दास को दिखाइयत पाय ज। खीमहू में रीझिबे की बानि, राम रीझत हैं, रीम है हैं राम की दुहाई रघुराय जू ॥१३६।। शब्दार्थ? =होकर । लाडिलै-प्यारे । भावते -प्यारे । बिगरे ते = बिगड़ने से, अर्थात् यदि मुझमे बिनती न करते बनी हो । भाय जू = भाईजी। साहिधिनी =स्वामिनी । बिलसति = विशेष प्रकार से लसती है अर्थात् शोभा- यमान है। खीझह मे- क्रोध में भी। रीझिये की बानि = प्रसन्न होने के स्वभाव से ! रीझ है हैं = प्रसन्न हुए होंगे। भावार्थ-हे इनुमानजी, हे प्यारे लक्ष्मणजी, हे प्यारे भरतजी, कृपालु होकर मुझ सेवक की सझयता कीजिए। मैं दीन, दुर्बल और दया का पात्र श्रापसे विनती करता है। अगर मुझसे विनती करते न बनी हो तो आप चात सुधार लीजिएगा । हे मेरी मालकिन सीताजी, (अथवा तुलसीजी आप तो सदा ही सब की शिरोभूषण हो, अतः हे देवि, मुझ दास को अपने चरण क्यों नहीं दिखलाती ( दर्शन क्यो नही देती)। श्रीरामजी का तो यह स्वभाव है कि वे क्रोध में भी रीझते हैं। अतएव मै रामचद्रजी की शपथ लेकर कहता हूँ कि रामचद्रजी मुझसे प्रसन्न ही होगे (अतः आप भी सिफारिश कर दीजिए तो मेरा काम बन जाय)। मूल-- (मत्तगयद सवैया) बेष बिराग को, राग भरो मनु, माय ! कहौं सतिभाव हौं तोसों। तेरे ही नाथ को नाम लै बेचि हौं पातकी पामर प्राननि पोसों। एते बड़े अपराधी अघी कह, तें कहु अंत्र ! कि मेरो तू मोसों। स्वारथ को परमारथ को परिपूरन भो फिरि घाटि न होसों ॥१३७॥ शब्दार्थ-राग-सासारिक सुखों से प्रेम । सतिभाव= सत्य भाव से, निष्कपट मन से । पामर-नीच । पोसों - पुष्ट करता हूँ, पालन करता है। एते-इतने । अघी-पापी || घाटि-कमती । घाटिन होसों-कमती न होगी।