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कवितावली


कहते हैं कि वह स्थान किसका है (अर्थात् सब मनोरथो की दात्री जगज्जननी सीताजी का है। वह विचार कर मेरी बात पर विश्वास करो। गगा के निकट सुन्दर (सीतामढी नामक) स्थान मे वह सीतावट शोभायमान है, जो कलियुग में कल्पवृक्ष है।


मूल—देवधुनी-पास मुनिबास सी-निवास जहॉ,
प्राकृत हूँ बट बूट बसत पुरारि है।
जोग जप जाग को बिराग को पुनीत पीठ,
रागिन पै सीठि, डोठि बाहरी निहारिहै।
‘आयसु’,‘आदेस’,‘बाबा’,‘भलो भलो’,‘भाव सिद्ध’,
‘तुलसी’ बिचार जोगी कहत पुकारि हैं।
रामभगतन को सौ कामतरु ते अधिक,
सियबट सेए करतल फल चारि है॥१४०॥

शब्दार्थ—धुनी= (स०) नदी। देवधुनि= गंगाजी। सी= सीताजी। प्राकृत वट= साधारण वट वृक्ष। बूट= वृक्ष। पुरारि= त्रिपुर नामक दैत्य के अरि शिवजी। पीठ= पवित्र स्थान। रामिन पै= सासारिक विषयो से अनुरक्तों के लिए। सौठि= नीरस। डीठि= (स०) दृष्टि। ‘आयसु•••••••••••• ‘भावसिद्ध’= साधु सन्तो की बोलचाल के वाक्य, अर्था वहाँ के रहनेवाले इसी प्रकार के शिष्ट और मधुर शब्दो का व्यवहार करते हैं। करतल फल चारि हैं= धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो फलो का पाना तो इतना सुलभ है जैसे हथेली में रखी हुई वस्तु का पाना अर्थात् अत्यंत सुलभ है। अधिक= इस कारण कि कल्पवृक्ष केवल अर्थ, धर्म काम का देनेवाला है, पर यह वट मोक्ष भी देता है।

भावार्थ—साधारण वट वृक्ष भी शिव का निवास माना जाता है, फिर यह बट तो गंगा के निकट है, जहाँ मुनियो की कुटियाँ हैं और जहाँ सीताजी का निवास स्थान रहा है। वह स्थान योग, जप और यज्ञ करने के लिए और वैराग्य साधन के लिए पवित्र है। पर सासारिक सुखो में लिप्त और बाहरी दृष्टि से देखनेवालों के लिए वह स्थान नीरस है। तुलसीदास कहते हैं कि वहाँ ऐसे योगी वसते हैं जो परस्पर शिष्टाचारसूचक ‘आयस’, ‘आदेश’, ‘बाबा’, ‘भलो भलो’, ‘भावसिद्ध’ आदि शब्दों का व्यवहार करते हैं? अर्थात्