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उत्तरकांड


अत्यत शिष्ट साधुजन का निवास वहाँ अब भी है)। रामभक्कों के लिए तो यह सीतावट कल्पवृक्ष से भी बढ़कर है, और इसकी सेवा करने से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारो फल करतलगत (अत्यत सुलभ) हो जाते हैं।

अलकारसमुच्चय और व्यतिरेक।

मूल—
(चित्रकूट-माहात्म्य)


जहाँ बन पावनो, सुहावने बिहंग मृग,
देखि अति लागत अनंद खेत खूँट सो।
सीतारामलषन निवास, बास मुनिन को,
सिद्ध साधु साधक सबै बिबेक बूट सो।
झरना झरत भारि सीतल पुनीत बारि,
मंदाकिना मजुल सहेस जटाजूट सो।
'तुलसी' जो राम सो सनेह साँचो चाहिये,
तौ सेइये सनेह सों बिचित्र चित्रकूट सो॥१४१॥

शब्दार्थखेत खूट सी= खेत के टुकड़े की भाँति अत्यत हरा भरा। विवेक= भले बुरे का ज्ञान। बूट= वृक्ष। बारि (स०)= जल। मजुल= सुंदर। सेइये= सेवा कीजिए।

भवार्थजहाँ पवित्र वन है, सुन्दर सुहाबने पक्षी और पशु हैं, जिस स्थान को खेत के टुकड़े की भाँति हरा-भरा देखकर अत्यंत आनंद होता है, जहाँ सीताराम और लक्ष्मण रहते थे, जो मुनियों का वासस्थान है जो सिद्ध, साधु और साधक सभी के लिए ज्ञान रूपा वृक्ष है (अर्थात् जहाँ सभी ज्ञान प्राप्त करते हैं), जहाँ ठडा और पवित्र जल गिराते हुए झरने झरते हैं, जहाँ महादेवजी के जटाजूट से निकली हुई सुन्दर मदाकिनीजी है (यथा-सुरसरिधार नाम मदाकिनि), तुलसीदास कहते हैं कि अगर रामचद्रजी से सच्चा स्नेह चाहते हो तो स्नेहपूर्वक ऐसे (उपयुक्त प्रकार के) विचित्र चित्रकूट पर्वत की सेवा करो (अर्थात् वहाँ रहो)।

मूल—मोहबन कलिमल-पल पीन जानि जिय,
साधु गाय बिप्रन के भय को नेवारि है।
दीन्ही है रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल,
लषन समर्थ बीर हेरि हेरि मारिहै।