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कवितावली


असित= काला)। हुलसै= उल्लसित होता है, आनदित होता है। हेरि= देखकर। हलोरे= तरगे। चारु= सुन्दर। बगरे= फैले हुए। सुरधेनु= कामधेनु। धौल= (स० धवल) सफेद। कलोरे= बछड़े।

भावार्थ—सब देवता परस्पर कहते हैं कि तीर्थराज प्रयाग के दर्शन को चलो। प्रयाग-राज के दर्शन से बड़़े बड़े अपराध नष्ट हो जाते हैं। वहाँ साधुओं के समूह स्नान करते हैं। श्वेत जलवाली गंगा और नीले जल बाली यमुना का सगम अति ही सुहावना है। उस स्थान पर दोनों नदियो की तरगें देखकर मेरा (तुलसीदास का) मन आनदित होता है। वह दृश्य ऐसा दिखलाई देता है मानो इधर उधर फैले हुए कामधेनु के सफेद बछडे (गंगा की तरगें) सुन्दर हरे हरे तृणो को (यमुना की तरगो को) चर रहे हैं।

नोट—सगम में यसुना की लहरे गंगा की लहरो मे लीन हो जाती हैं (यमुनाजी गंगाजी मे लीन हो जाती हैं) अत्यत विचारपूर्ण और उत्तम उत्प्रेक्षा है।

अलंकार—उत्प्रेक्षा ।

मूल—देवनदी कहँ जो जन जान किये मनसा, कुल कोटि उधारे।
देखि चले, झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सॅवारे।
पूजा को साज विरंचि रचै, ‘तुलसी’ जे महातम जाननहारे।
ओक की नींव परी हरिलोक बिलोकत गंग तरग तिहारे॥१४५॥

शब्दार्थ—देवनदी= गंगा। उधारे= उद्धार किया। सुरनारि= यहाँ अप्सराओं से तात्पर्य है। सुरेस= इंद्र। विरंचि= ब्रह्मा।ओक= घर। हरिलोक= बैकुठ।

भावार्थ—ज्यो ही किसी ने गगास्नान को जाने की इच्छा की त्यों ही उस मनुष्य के करोड़ पीढ़ी के पुरषा तर जाते हैं। उसको गगास्नान करने को चला हुआ देखकर अप्सराएँ उसको वरण करने के लिए झगड़ने लगती हैं। इद्र उसको स्वर्ग में ले जाने के लिए विमान सजाकर तैयार करने लगते हैं। ब्रह्मा जो गंगा का माहात्म्य जानते हैं उसकी पूजा करने की सामग्री एकत्र करने लगते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि हे गंगाजी, आपकी तरगों के दर्शन से ही (निकट पहुँचते ही) दर्शक के लिए बैकुठ में घर की नीव पड़ जाती है (तो स्नान करने का माहात्म्य मै क्या कहुँ?)।