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२११
उत्तरकाण्ड

उत्तरकांड २११ अलंकार-अ्रत्यतातिश्योक्ति |। मूल- ब्रह्म जो व्यापक बेद कहं, गम नाहिं गिरा गुन-ज्ञान गुनी को । जो करता भरता हरता सुर-साहिब, साहिब दीन दुनो को । सोइ भयो द्रवरूप सही जुहै नाथ बिरंचि महेस मुनी को । मानि प्रतीति सदा 'तुलसी' जल काहे न सेवत देवघुनी को ॥१४६!॥ शब्दारथ-जो =जिसको । गम नाहि %3D यम्य नही है ( जिसको जान नहीं सकते ) । गिरा =सरस्वती । करता=उत्पन्न करनेाला । भरता = भरण- पोघण करनेवाला । हरता -सहार करनेवाला | दुनी - दुनिया । द्रवरूप = जल रूप । सही =सत्य ही, वास्तव में। देवधुनी ंगा । भावाथ-जिस परब्रह्म परमात्मा को वेद सर्वव्यापी कहते हैं, जिस पर - मात्मा के गुण श्रौर ज्ञान की थाह गुरगोजन और शारदा भी नही पा सके, जो ब्रह्म सृष्टि का कर्ता, भर्ता, और हरता है, देवतों में श्रेष्ठ, और दीन -दुनिया का स्वामी है, जो वास्तव मे ब्रह्मा, शिव श्रऔर मुनियो का स्वामी है, वही विष्णु भगवान् जलरूप हुए हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यह विश्वास मानकर नत्य गगा-जल का सेवन क्यों नहीं करते हो ? विशेष-गङ्गाजी विष्पु के चरणो से निकली हैं ऐसा ही माना जाता है कि मङ्गाजी परमेश्वर का द्रव रू प हैं । सूल- बारि तिहारो निहारि, मुरारि भए परसे पद पाप लहौंग । ईस ह सीस धरी पै डरौ, प्रभु की समता बड़ दोष दहौगो । बरु बारहि बार सरीर धरीं, रघुबीर को ह्रन तव नीर रहौगे । भागीरथी ! विनवा कर जोरि बहोरि न खोरि लगे सो कहोंगो।॥१४७ शब्दार्थ -बारि=जल । मुरारि=D मुर नामक दैत्य के शत्रु विष्यणु वान् । परसे=रपर्श करने से ! पद =D पैरो से। लौंमो = ( स० लमম् से लह) प्राप्त करूमा । ईस = शिव ! दीष दहौगो = दोष से दग्ध हूँगा। बरु = भले ही। बारहि बार सरीर धरौ =बार बार जन्म धारण करू 1 तीर -तट पर । बहोरि = फिर ! खोरि न लगै= दोष न लगै । भग-