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कवितावली

भावार्थ—हे गंगे! यह जानकर कि तुम जलरूप ईश्वर ही हो, तुम्हें अपने चरणो से स्पर्श करने से मुझे पाप लगेगा (इसी से मै तुममे पैठकर स्नान नहीं करता), शिव के समान शिर पर धारण करते भी डरता हूँ कि बड़ो की बराबरी करने से बडे भारी दोष में दग्ध हो जाऊँगा (इसी से सिर पर भी तुम्हारा जल नही छिड़कता)। (तुम्हारा इस प्रकार अनादर करने से) मुझे भले ही अनेक बार जन्म लेना पड़े, पर मै तो रामचन्द्रजी का भक्त होकर तुम्हारे तट पर ही निवास करूँगा (स्नान चाहे ने करूँँ)। हे गगे, मै हाथ जोड़कर बिनती करता हूँँ कि जिससे फिर मुझे दोष न लगै मैं ऐसा ही सत्य वचन कहूँगा। (तात्पर्य यह कि गगातट पर रहकर भी जो मै गङ्गा- स्नान करने नही जाता उसका कारण आपका निरादर नही करन् रामभजन में संलग्नता है)।

मूल—
(कवित्ता)

लालची ललात, बिललात द्वार द्वार दीन,
बदन मलीन, मन मिटै न बिसूरना।
ताकत सराधे कै, बिबाह, कै उछाह कछू,
डोलै लोल बूझत सबद ढोल तूरना।
प्यासे हू न पावै बारि, भूखे न चनक चारि,
चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।
सोक को अगार दुख-भार-भरो तौ लौं जन,
जौ लौं देवी द्रवै न भवानी अन्नपूरना॥१४८॥

शब्दार्थ—बिसूरना= चित्ता, सोच। सराध= (स० श्राद्ध) पितृकर्म। उछाह= उत्सव। डौलै= भटकता है। लोल=चंचल। बूझत सबद ढोल तूरना= ढोल और तूरी का शब्द सुनकर पूछने लगता है (कि यहाँ कोई उत्सव तो नहीं )। अहारन पहार=अहारों के पहाड़, अर्थात् अपरिमित भोजन। दारि= दाल का दाना। घूर ना= घूरे पर बिनने से भी नही मिलता। दुख-भार-भरो= दुःख के बोझ से भरा हुआ। द्रवै= पिघले अर्थात् दया करे।

भावार्थ—लालची टुकड़े-टुकड़े के लिए लालायित होकर दरवाजे दरबाजे दीन होकर विललाता है, उसका मुँह मलिन हो बाता है, और मन की चिंता