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कवितावली


तुल्य, सुख के मूल, त्रिशल धारण किए हुए, त्रिपुर दैत्य के शत्रु, त्रिलोचन, नग्न, कालकूट विप को भक्षण करनेवाले, सासारिक अर्थात् जन्म-मरण के भय से छुडानेवाले और जिनकी सेवा करने से तीनो लोको तीनो कालों में कल्याण प्राप्त करना सुलभ है, तुलसीदास कहते हैं कि मै ऐसे शंकर (कल्याए-कर्ता) की शरण हूँ।

मूल—गरल-असन, दिग्बसन, व्यसन-भंजन, जन-रंजन।
कुंद-इंद-कर्पूर-गौर, सच्चिदानंद घन।
विकट बेष, उर सेष, सीस सुरसरित सहज सुचि।
सिव, अकाम, अभिराम, घाम, नित रामनाम रुचि।
कन्दर्प-दर्पदुर्गम-दवन,उमा-रवनगुनभवन हर।
तुलसीस त्रिलोचन, त्रिगुन-पर, त्रिपुर-मथन, जय त्रिदस-बर॥१५०॥

शब्दार्थ—गरल= विष, हलाहल। असन= (स० अशन) भोजन। व्यसन-भजन= बुरे स्वभाव को तोड़नेवाले। जन-रजन= दासो को आनदित करनेवाले। कुन्द= एक सफेद फूल। इंदु= चंद्रमा। कुन्द-इंदु कर्पूर-गौर= कुन्द, चन्द्रमा और कर्पूर के समाम श्वेत वर्णवाले। सच्चिदानन्दघन= सत्, चित् और आनन्द का समूह। बिकट= भयंकर। सेष= सर्प। अकाम= इच्छा-रहित। खिव= (सं० शिव) कल्याण-स्वरूप। अभिराम= आनन्द। धाम= घर। कंदर्प= कामदेव। दुर्गम कदर्प-दर्प दबन (दमन)= कामदेव के बड़े भारी अभिमान को नाश करनेवाले। उमा-रवन= उमारमण। हर= संहार-कर्त्ता। त्रिगुन-पर= सत्व, रज, तम तीनो गुणो से परे। त्रिदस-वर= देवताओ मे श्रेष्ठ।

भावार्थ— विषभोजी, नग्न, दुःखों का नार करनेवाले, लोगों को आनन्ददायक, कुन्द, चन्द्रमा और कर्पूर के समान गौर वर्ण, सत्, चित् और आनन्द के समूह, भयकर वेष घारण किए हुए, छाती पर सॉप का जनेऊ पहने हुए, सिर पर स्वभाव से ही पवित्र गंगाजी को धारण किए हुए, कल्याणस्वरूप, इच्छारहित, आनन्द के घर, नित्य रामनाम से प्रेम करनेवाले, कामदेव के बड़े भारी अभिमान को चूर चूर करनेवाले, पार्वतीजी के स्वामी, समस्त संद्गुणों के घर, जगत् के सहार-कर्त्ता तुलसीदास के स्वामी, त्रिलोचन तस्व-