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उत्तरकांंड

शब्दार्थ—न खाँगो कछु= मेरे पास (धन-सपत्ति किसी वस्तु की मी) कमी नही है। रॉकनि= रकों को, दरिद्रो को। नाकप= (स० नाक= स्वर्ग+प) इंद्र, रीझि= प्रसन्न होकर। जग जो जुरैं जाचक जोरी= संसार में जितने भी याचक जोड़े जुड़ सकते हैं, उन्हे, एकत्र करते हैं। नाक सँवार= स्वर्ग बनाते बनाते। आयो हौ नाकहि= मेरी नाक मे दम आ गया, मै हैरान हो गया। नाहि पिनाकिहि नेकु निहोरो= शिवजी मेरा थोंड़ा भी एहसान नहीं मानते। सिखवो= हटको (कि ऐसा न करे)। बावरो=बावला। भोरो= सीधा-खादा, भोला।

भावार्थ—ब्रह्माजी पार्वतीजी से कहते हैं कि हे पार्वती, अपने पति को हटको। तुम्हारा पति दानी तो है, पर साथ ही बड़ा पागल और भोला है (अर्थात् जिसको किस प्रकार दान देना चाहिए यह ज्ञान नहीं है), नंगा होकर तो इधर उधर घूमता फिरता है, पर भिखारियो को देखकर कहता है कि मेरे पास कुछ कमती नही है, अतएव जो कुछ मॉगना हो भरपूर मॉग लो, थोडा मत मॉगना। संसार के जितने भी भिखारी उसके जोड़े जुड़ सकते हैं जोड़ता है, और प्रसन्न होकर दरिद्रो को इद्र बना देता है। उन इद्रो के लिए स्वर्ग बनाते बनाते मेरी नाक में दम आ गया है, पर शिवजी मेरा जरा भी एहसान नही मानते।

मूल—
 

बिष-पावक-व्याल कराल गरे, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े।
भूत बैताल सखा, भव नाम दलै पल में भव के भय गाढ़े।
तुलसीस दरिद्र-सिरोमनि सो सुमिरे दुखदारिद होहि न ठाढ़़े।
भौन में भाँग, धतूरोई ऑगन मॉगे के आगे हैं मॉगने बाढे़॥१५४॥

शब्दार्थ—पावक= (सु०) अग्नि। व्याल= सॉप। गरे= गले में। तिहुँ ताप= दैहिक, दैविक, भौत्तिक तीन प्रकार के कष्ट। न डाढे़= दग्ध नही होते, पीड़ित नहीं होते। भव= (१) शिवजी का नाम (२) संसार। दलै= नाश करते हैं। गाढ़े= कठिन। भोन= (स० भवन) घर। माँगने= भिखारी। बाढ़े हैं= बढ़ गए हैं।

भावार्थ—शिवजी के कठ मे विष है, ऑखो मे अग्नि है और गले में भयकर सर्प लटकाए हुए हैं, परतु तिस पर भी शरणागत तीनों तापों (दैहिक,