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कवितावली


भूषण की भाँति कठ में स्थित हो गया। अतः हे स्वामी, आपका हृदय तो करुणा का समुद्र है, पर मेरा ही कपाल फोडने योग्य है (अर्थात् मै ही अभागा हूँ)। अथवा किसी ने आपको मेरा कोई अपराध दिखलाया है (जो आप मुझ पर कृपा नहीं करते)। तुलसीदास कहते हैं कि हे शिवजी, मुझे कलियुग ने पीड़ित किया है, मेरी विनती क्यो नही सुनते।

मूल—
(कवित्ता)

खायो कालकूट, भयो अजर अमर तनु,
भवन मसान, गथ गाठरी गरद की।
डमरू कपाल कर भूषन कराल व्याल,
बाबरे बड़े की रीझ बाहन बरद की।
‘तुलसी’ बिसाल गोरे गात बिलसति भूति,
मानो हिमगिरि चारु चॉदनी सरद् की।
धर्म अर्थ काम मोक्ष बसत बिलोकनि मे,
कासी करामाति जोगी जगति मरद की॥१५८॥

शब्दार्थ—कालकूट= हलाहल विष। अजर= जिसकी जरा (वृद्धावस्था) न आए। अमर= जो मरे नही। भवन= घर। मसान=(स० श्मथान) मरघट। गथ= धन। गरद= विभूति। डमरू= बाजा विशेष। रीझ= प्रसन्न होते हैं। बरद= बैल। गात= (स० गात्र) शरीर। बिलसति= सुशोभित होती है। सरद= शरद ऋतु। चारु= सुन्दर, निर्मल। बिलोकनि= दयाहृष्टि मे। जोगी मरद की करामाती कासी (मे) जगति= इस योगी व्यक्ति की अर्थात् शिवजी की उपर्युत करामात काशी मे प्रकट होती है। जगति= प्रकट होती है।

भावार्थ—शिवजी ने कालकूट विष को पिया, पर मरने के बदले उनका शरीर अजर और अमर हो गया। उनका घर श्मशान में है, भस्म की पोटली ही उनका घन है, हाथों में डमरू और खप्पर है, हाथों में डमरू और खप्पर है, भयकर सॉप उनके आभूषण हैं, बड़े भारी गौर-वर्ण शरीर में विभूति इस प्रकार शोभा देती है मानों हिमालय मे शरद् ऋतु की चादनी फैली हो; और इनकी दयादृष्टि से ही धर्मार्थकाममोक्ष प्रात्त हो जाते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि योगिराज शिवजी की सामर्थ्य काशी मे प्रकट होती है।