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कवितावली


तुलसीदास कहते हैं कि दूसरे जन्म में सकल पदार्थों को पाने के लिए बिना विश्वास के भी प्रयाग में देह-त्थाग क्यों करता है? परलोक, और अतोल धन-वैभव पाने के लिए कुरुक्षेत्र में दान क्यो देता है? घतूरे के दो पत्ते शिवजी को देकर उनको भोरा कर, संसार के स्वामी से सहज ही में इंद्र का ऐश्वर्य क्यों नहीं प्राप्त कर लेता?

शब्दार्थ—स्यदन= रथ। गयद= (स० गजेद्र) हाथी। बाजिराजि= घोड़ों की पक्ति। भट= योद्धा। निकर= समूह। करनि हू न पूजै क्वै= करतूत में कोई बराबरी नही करता। क्वै= कोई। ज्वै= जो कुछ। इहॉ= इस लोक मे। ओक= घर। कै= अथवा। रिसाने= क्रोध में। केलि= खेल से ही। चढ़ाये ह्वै हैं= चढाये होगे। पतौवा= पत्ते।

मूल—स्यंदन, गयंद, बाजिराजि, भले भले भट,
धन धाम-निकर, करनि हू न पूजै क्वै।
बनिता बिनीत, पूत पावन सोहावन औ
बिनय, विवेक, विद्या सुलभ, सरीर ज्वै।
इहाँ ऐसो सुख, परलोक, सिवलोक ओक,
जाको फल ‘तुलसी’ सो सुनौ सावधान ह्वै।
जाने, विनु जाने, कै रिसाने, केलि कबहुँक,
सिवहि चढ़ाये ह्वै हैं बेल के पत्तौवा द्वै॥१६३॥

भावार्थ—रथ, हाथी, घोड़े, अच्छे अच्छे योद्धा, धन और घरों का समूह, सबसे बढ़कर करतूत, विनीत पत्नी, पवित्र आचरणवाली और सुन्दर पुत्र, विनय, सदसद् का ज्ञान, विद्या, सुन्दर शरीर आदि जो कुछ भी सुन्दर पदार्थ हैं (सब प्राप्त), इस लोक मे तो इस प्रकार का सुख और मरने पर अन्त मे शिव-लोक की प्राप्ति, यह जब जिस कर्म का फल है वह सावधान होकर तुलसी से सुन लो, (कि) ये सब फल पानेवाले ने जानकर वा बेजान ही, रिस में या खेल में कभी शिव पर दो दो बेलपत्र चढ़ा दिए होंगे।

अलंकार—परिवृत्ति

मूल—रति सी रबनि, सिंधु-मेखला-अवनिपति,
औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारिकै।