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उत्तर कांंड


संपदा समाज देखि लाज सुरराज हू के,
सुख सब बिधि वबिधि दीन्हे हैं सॅवारि कै।
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथ-पद,
जाको फल ‘तुलसी’ सो कहैगो बिचारि कै।
आक के पतौवा चारि, फूल कै धतूरे के द्वै,
दीन्हें ह्वै हैं बारक पुरारि पर डारि कै॥१६४॥

शब्दार्थ—रति= कामदेव की स्त्री। रवनि= (सं० रमणी) स्त्री। सिधु-मेखला अवनि-पति= समुद्र पर्येत का राजा। सिंधु-मेखला-अवनि= सिंधु है करधनी जिसकी ऐसी अवनि (बहुब्रिही समास)। औनिप= (सं० अवनिप) राजा। सुरनाथ= इंद्र। आक= मदार। कै= अथवा। डारि दीन्हें ह्वै हैं= चढ़ाए होंगे। बारक= एक बार, कभी।

भावार्थ—रति की तरह सुन्दरी पत्नी हो, समुद्र पर्येत पृथ्वी का राज्य हो, अनेक राजा उससे हार मानकर हाथ जोड़े हुए उसके सामने खडे हों, उसकी सपत्ति के समूह को देखकर इद्र को भी लज्जा हो, ब्रह्मा ने भी सब प्रकार के सुख एकत्र कर उसको दिए हो, इस लोक में तो ऐसा सुख भोग करे, और मरने पर स्वर्ग में इद्र की पदवी को पावे। यह सब जिस कर्म का फल है, वह तुलसीदास विचारकर कहता है कि) उसने कभी (इस जन्म में अथवा पूर्व जन्म में) एक बार शिवजी पर आक के चार पत्ते अथवा धतूरे के दो फूल चढ़ाए होंगे।

अलंकार—परिवृत्ति।

मूल—देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरे ही,
नाम राम ही के माँगि उदर भरत हौं।
दीबे जोग ‘तुलसी’ न लेत काहू को कछुक,
लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं।
एते पर हू जो, कोऊ रावरो ह्वै जोर करै,
ताको जोर, देव दीन द्वारे गुदरत हौं।
पाइकै उराहनो, उराहना न दीजै मोहिं,
काल-कला कासीनाथ कहे निवरत हौं।॥१६५॥