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कवितावली

शब्दार्थ—देवसरि= गंगा। बामदेव= शिवजी। उदर= पेट। ऐते पर हू= इतने पर भी। रावरो है= आपका जन होकर। जोर करै= बल प्रयोग करे। गुदरत हौ= कहे देता हूँ, प्रकट कर देता हूँ। ठराहना= उलाहना उपालम्भ। काल-कला= कलिकाल की करनी। कहे= कहकर। निबरत हौं= छुटकारा पाता हूँ।

प्रकरण—एक बार शिवोपासकों ने तुलसीदास के प्रति ईर्ष्या कर उनको काशी से चले जाने को विवश किया। गोसाइँजी शिवनाथजी के मंदिर के कवाट पर उपर्युक्त छद लिख कर चले गए। दूसरे दिन शिवभक्तो को कपाट बंद मिले और भीतर से वाणी हुई कि तुमने भगवद्भक्त का अपमान करके भगवान् का अपराध किया है। यह सुन कर वे सब तुलसीदासजी को लौटा लाए।

भावार्थ—हे शिवजी, मै आपके गॉव काशी में ही गगा का सेवन करता हूँ, और रामचंद्रजी के नाम से माँग कर पेट भरता हूँ। अगर मुझे किसी को देने की योग्यता नहीं है तो मैं किसी से कुछ लेता भी नहीं हूँ। किसी का उपकार करना तो मेरे भाग्य में नहीं लिखा है पर मै किसी की हानि भी नहीं करता। इतने पर भी अगर आपको कोई भक्त मुझे कष्ट दे तो हे देव, मै दीन होकर आप ही के पास उसका कष्ट देना निवेदन किए देता हूँ। मैं रामचंद्रजी का भक्त हूँ, अतः रामचंद्रजी से उलाहना पाकर (कि आपने अपने भक्तों से मेरे भक्त की रक्षा क्यों न की) आप मुझे उलाहना न दीजिएगा (कि तुमने मुझसे अपना दुःख क्यों नहीं कहा)। अतः हे काशीनाथ, मै आपसे अपना दुःख कहके छुटकारा पाता हूँ, जिससे आप समय पर उलाहना न दे।

मूल— चेरो राम को, सुजस सुनि तेरो हर!
पाइँ तर आई रह्यों सुरसरि तीर हौं।
बामदेव, राम को सुभाब सील जानि जिय,
नातो नेई जानियत, रघुबीर भीर हौं।
अधिभूत-बेदन बिषम होत, भूतनाथ!
‘तुलसी’ विकल, पाहि, पचत कुपीर हौं।
मारिए तो अनायास कासी बास खास फल,
ज्याइए तौ कृपा करि निरुज सरीर हौं॥१६६॥