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उत्तरकांंड

शब्दार्थ—चेरी= दास श। हर= शिव। रघुबीर भीर हौं= मैं केवल रामचंद्रजी से ही डरता हूँ। अविभूत= आधिभौतिक बाधा। बेदन= वेदना, केट, पीड़ा। विषम= असह्य। पाहि= मेरी रक्षा करो। कुपीर पचत्त= बुरी पीड़ा से पीडित हूँ। अनायास= सहज ही। खास= प्रसिद्ध। निरुज(सं०)= रोगहीन।

भावार्थ—हे शिबजी, मैं राजा रामचद्र जी का दास हैं, और आपका सुयश सुनकः आपके चरणों के पास आकर गंगा के किनारे रहता हूँ। हे वामदेव, आप अपने मन में राम को शील-स्वभाव जानते ही हो, और उनका मुझसे स्नेह का सबध है यह भी जानते ही हो। मैं केवल रामचचद्रजी से ही डरता हूँ। हे भूतनाथ, मुझे बड़ी विषम आधिभौतिक वेदना हो रही है, मैं (तुलसीदास) अत्यन्त व्याकुल हूँ। मेरी रक्षा करो। यह पीड़ा मुझे बुरी तरह से दुःख दे रही है। अगर मुझे मार डाले तो मुख्य फल यही है कि मुझे सहज ही काशीवास का फल प्राप्त होगा। अगर जीवित रखना हो तो ऐसी कृपा कीजिए जिससे मेरा शरीर नीरोग रहे।

मूल—जीबे की न लालसा, दयालु महादेव! मोहिं,
मालुम है तोहि मरिबेई को रहुतु हौं।
कामरिपु! राम के गुलामनि को कामतरु,
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं।
रोग भयौ भूत सो, कुसूत भयो ‘तुलसी’ को,
भूतनाथ पाहि पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइए तौ जानकीरमन जल जानि जिय,
मारिए तौ मॉगी मीचु सुधियै कहतु हौं॥१६७॥

शब्दार्थ—जीबे की= जीवित रहने की। लालसा= इच्छा। कामतरु= कल्पवृक्ष, कामनाओं को देनेवाला। कुसूत= कुप्रबंध, असुविधा। तुलसी को= तुलसीदास के लिए। पाहि= रक्षा कीजिए। गहतु हौं= पकड़ता हूँ। ज्याइए= जीवित रखिए तो।

भावार्थ—रोग से पीड़ित होकर तुलसीदास शिवजी से प्रार्थना करते हैं कि हे दयालु शिवजी, मुझे जीने की इच्छा नही है। आपको मालूम ही है। कि मै काशी में मरकर माक्ष पाने के लिए ही रहता हूँ। हे कामदेव के शत्रु