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उत्तरकांंड

अलंकार—तुल्ययोगिता।

मूल—गौरीनाथ, भोलानाथ, भवत भवानीमाथ,
विस्वनाथ-पुर फिरी आन कलिकाल की।
संकर से नर, गिरिजा सो नारी कासी-बासी,
वेद कही, सही ससिसेखर कृपाल की।
छसुख गनेस तें महेस के पियारे लोग,
बिकल बिलोकियत, नगरी बिहाल की।
पुरी-सुरवेलि, केलि काटत किरात-कलि,
निठुर! निहारिये उघारि डीटि भाल की॥१६६॥

शब्दार्थ—भवत= आप। आन= दुहाई। सही की= समर्थन किया। ससिसेखर= (शशिशेखर) शिवजी। छसुख= कार्तिकेय। बिहाल= व्याकुल। सुरवेलि= कल्पलता। केलि= खेल ही मे। किरात-कलि= कलियुग रूपी किरात। भाल की डीठि= ललाट पर का तीसरा नेत्र (जिसको उधारने से कामदेव जलकर राख हो गया था)।

भावार्थ—हे शिवजी, आप गौरीनाथ, भोलानाथ, और भवानीनाथ हैं, आपकी पुरी काशी में कलियुग को दुहाई फिरी है। वेदों ने कहा है कि काशी के रहनेवाले पुरुष महादेवजी के समान और स्त्रियॉ पार्वतीजी के समान हैं। इस बात को कृपालु शशिशेखर ने अर्थात् आपने समर्थन किया है। जो लोग शिवजी को कार्तिकेय और राणेश से भी प्यारे थे वे ही बड़े व्याकुल दिखलाई देते हैं। सारी काशीपुरी को इस कलियुग ने व्याकुल कर दिया है। यह कलियुग रूपी किरात काशी रूपी कल्पलता को खेल ही खेल में काटना चाहता है। हे निष्टुर शिवजी, अपने ललाट की आँख को खोलकर इसकी ओर देखिए (अर्थात् उसको भस्म कीजिए)।

नोट—इस छंद से अंत सक के छंद उस समय कहे गए हैं जब काशी में महामारी फैली थी।

मूल—ठाकुरक महेस, ठकुराइनि उमा सी जहाँ,
लोक बेद हू।। बिदित महिमा ठहर की,
भट रुद्रमन, पूत गनपति सेनपाति,
कलिकाल की कुचाल काहू तौ न हरकी।