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कवितावली

बीसी बिस्वनाथ की विवाद बढ़ो बारानसी,
बूझिये न ऐसो गति संकर-सहर की।
कैसे कहै ‘तुलसी’ वृषासुर के बरदानि।
बानि जानि सुधा तजि पियनि जहर की॥१७०॥

शब्दार्थ—ठाकुर= मालिक। ठकुराइन= मालकिन। उमा= पार्वती। ठहर= स्थान। सेनापति= कार्तिकेय। हरकी= मना की, रोकी। बीसी बिस्व नाथ की= साठ (प्रभव से क्षय तक) सवत्सरों को तीन भागों में बाँटा गया है। प्रथम बीस ब्रह्मा की बीसी, द्वितीय बीस विष्णु की बीसी, अंंतिम बीस सवत्सर विश्वनाथ की बीसी कहलाते हैं। यह शिवजी की बीसी (रुद्रबीसी) सवत् १६६५ से १६८५ तक रही। बृषासुर= भस्मासुर का दूसरा नाम है।

भावार्थ—जहाँ के मालिक शिवजी और मालकिन पावतीजी के सदृश हैं, जिस स्थान को महिला लोक और वेद दोनो में प्रकट है, जहाँ योद्धा वीरभद्रादि शिवजी के रण है, जिनके दोनो पुत्र गणपति और सेनापति सरीखे हैं, वहाँ इस कलियुग की कुचाल को किसी ने नहीं रोका। इस रुद्रबीसी मे शिवजी की पुरी में बड़ा भारी दुःख है। शकरजी के समान कल्याण-कर्ता के नगर की ऐसी दशा क्यो हुई यह समझ में नहीं आता। उनको तुलसीदास कैसे कह सकते हैं? हे वृषासुर को वरदान देनेवाले शिवजी, आपकी तो अमृत छोड़कर विष पीने की आदत प्रकट है (अतः आप कलियुग को क्यों बरजेगे?)।

नोट—इस छद में ध्वनि यह है कि काशी को दुर्दशा आप स्वयं करा रहे हैं, क्योंकि आपकी आदत है कि अडबड काम कर बैठते हैं। भस्मासुर को बरदान देकर तथा हलाहल पीकर आप स्वयं हैरान हुए, वैसे ही यह भी आपकी कोई विलक्षण लीला होगी, तुलसी आप से क्या कहे।

मूल—लोक वे हू बिदित बारानी की बड़ाई,
बासी नरनारि ईस अंबिका-सरूप हैं।
कालनाथ कोतवाल, दंड-कारि दंडपानि,
सभासद गनप से अमित अनूप हैं।
तहाँऊ कुचालि कलिकाल की कुरीति, कैधौं,
जानत न मूढ़, इहाँ भूतनाथ भूप हैं।