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कवितावली

शब्दार्थ—पचकोस= असी से वरुणा नदी तक काशी की परिक्रमा पाँच कोस की है। परारथ= परमारथ, पारलौकिक सुख। सुपास= (स्वपार्श्व) अपने पास। बारी= जला दी। चक्रपानि= श्रीकृष्ण।हितहानि= अपने मित्र शिव्जी की हानि मान कर। मुरारी= मुर नामक दैत्य के शत्रु श्रीकृष्ण। मन भियो है= मन में संकुचित हुए, डरे। आसु-तोष= शीघ्र ही संतुष्ट हो जानेवाले शिवजी।

भावार्थ—यह पंचकोसी के भीतर की भूमि पुण्यमय है और स्वार्थ के निवासियों को कृपा करके अपने पास वसाया, पर वे नीच प्रकृति नर-नारी इस आदर को न सँभाल सके (मोह-अभिमानवश सुकर्म त्यागकर कुकर्म करने लगे अतः) वे कायर जन अपने अविचार का फल पाते हैं (अर्थात् हे शिवजी! तुम्हारा कुछ दोष नहीं, यह महामारी यहा के निवासियों के कर्मों का फल है)। पर आपसे तो उस समय श्रीकृष्णजी भी (जिन्होंने मुर नामक प्रबल दैत्य को मारा था) प्रेम-हानि समझ कर डर गए थे जब मिथ्या वासुदेव को मारने के लिए उन्होने सुदर्शन चक्र छोड़ा था और उसने उसे मारकर काशी नगरी को भी (बिना कृष्ण की आशा के ही) जला दिया था—(सो क्या कलिकाल आपसे डरेगा?) और यदि यह कहो कि हम ही ने यहाॅ के वासियो के कुकर्मो से नाराज होकर उन्हे दंड देने के हेतु यह महामारी फैलाई है तो हे शकर, आपके इस क्रोध के समय में भी मुझे एक भरोसा है और मै उसे कहे डालता हूँ कि आपका नाम ‘आशुतोष’ है और आप ऐसे दयालु हैं कि (पहले एक समय) आपने लोगों को विकल देखकर कालकूट पी लिया था, तो क्या अ आप इस महा- मारी के विष को नही पी सकते— अर्थात् पी सकते हैं— अतः इस महामारी को आप पी जाइये।

नोट—एक समय काशी के एक ‘मिथ्या वासुदेव’ नामक राजा ने द्वारका पर चढ़ाई की। कृष्ण ने सुदर्शन चक्र छोंड़ा। चक्र ने उस राजा को परास्त करके उसकी काशी को भी जला डाला था। उस समय कृष्णजी ने शंकर से माफी माँगी थी कि चक्र ने बिना मेरी आज्ञा के ही तुम्हारी पुरी जला दी है, अतः मुझे क्षमा कीजिए।