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उत्तरकांंड

मूल—रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर,
तेरे ही प्रसाद जग, अगजग-पालिके।
तोहि में बिकास बिस्व, तोहि में बिलास सब,
तोहि में समात मातु भूमिघर बालिके।
दीजै अवलंब जगदंब न बिलंब कीजै,
करूना-तरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके।
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी
देखिये दुखारी मुनि-मानस-मरालिके॥१७३॥

शब्दार्थ—बिरचि= ब्रह्मा। हरि= विष्णु। हरत= संहार करते हैं। हर= शिव। अग= अचर। जग= जगम चर। विकास= उत्पत्ति। बिस्व= सृष्टि। बिलास= पालन। भूमिघर= पर्वंत (हिमालय)। करुनातरंगिनि= करुणा की नदी अर्थात् करुणामयी। कृपातरगमालिका= कृपा रूपी तरंगों की माला, अर्थात् अत्यत कृपा करनेवाली। परितोष= सतुष्ट हो। मुनिमानसमरालिके= मुनियो के मनरूपी मानसरोवर के लिए हंसी के समान। (अर्थात् जैसे हंसी मानसरोवर मे रहती है वैसे ही तुम मुनियों के मन में बसती हो)।

भावार्थ—हे चराचर का पालन करनेवाली, तुम्हारी ही प्रसन्नता (इच्छा) से ब्राह्मा संसार को रचते हैं, विष्णु पालन करते हैं, और शिवजी संहार करते हैं। हे हिमालय की पुत्री पार्वतीजी, सारी सृष्टि तुम्हीं से उत्पन्न होती है, तुम्हीं से इसका पालन होता है, और हे माता, अंंत में यह संसार तुम्हीं में समाता है। हे करुणा की नदी और कृपा की तरगमाला जयदबा, अब सब को सहारा दीजिए, विलंब न कीजिए, यइ महामारी इस समय क्रुद्ध होकर सब जगत् को खाए जाती है और तू जगन्माता होकर संतुष्ट होकर बेफिकिर बैठी है। अतः हे मुनियों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हसी के समान जगदबे! संसार को दीन और दुःखी देखकर सब पुत्रो पर प्रसन्न होकर इसका निवारण कीजिए ।

अलंकार—परिकराकुर (‘जगदंब’ शब्द खाभिप्राय है)

मूल— निपट अने रे, अध औगुन बसेरे, नर
नारि ये घनेरे जगदब चेरी चेरे हैं।