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कवितावली

तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन इकील सबै।
मति भारति पंगु भई जो निहारि, विचारि फिरी उपमा न पवै॥

अर्थ―श्रेष्ठ सरजू के दीर पर रघुबीर, और उनके सब वीर सखा फिर रहे हैं। हाथ में छोटे-छोटे धनुफ और बाण हैं और कमर पर तरकस कसे हैं। नये पीत पट शोभायमान हैं। ह तुलसी! दश, चारि, नौ, तीन, इक्कीस सबमें सरस्वती की मति उस समय की शोभा की उपमा के लिए विचारते और देखते फिरते लँगड़ी हो गई और उपमा न मिली।

शब्दार्थ―दश = दिशा। बारि = चार युग। नौ = नौ खण्ड। तीन = तीनी काल। इक्कीस = ७ लोक+११ भुवन। भारत्ति = सरस्वती।

घनाक्षरी

[ ८ ]

छोनी में के छोनीपति छाजै जिन्हैं छत्र छाया
छोनी छानी छाये छिति आये निमिराज के।
प्रबल प्रचंड बरिवंड बरबेष बपु,
बरिबे को बोले बयदेही बरकाज के
बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ,
बाजे बाजे बीर बाहु धुनत समाज के।
तुलसी मुदित मन पुरनर-नारि जेते
बारवार हेरैं मुख औध मृगराज के॥

अर्थ―सब पृथ्वी पर के राजा, जिन्हें छत्र की छाया जगह-जगह छाये रहती है अर्थात् जिन पर सब जगह छत्र लगा रहता है, वह मिथिला के राजा की सब भूमि पर (देश में) छावनी-छावनी में, जगह-जगह, छा गये। बड़े प्रतापवान्, तेजवाले, बरिवण्ड (बलवान्), अच्छे शरीर और वेषवाले, वैदेही के स्वयंवर में बरने को बुलाये हैं। बन्दीजन बोले विरद (प्रण) बजाकर (अर्थात् ज़ोर से पुकारकर) अथवा विरुदावली कहकर, अच्छे-अच्छे बाजे भी बजे और उस समाज के बाजे-बाजे वीर अपने बाहु घुनने लगे अर्थात् सीता ब्याहने के लिए बाहें फुलाने लगे, ताल ठोकने लगे। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय जनकपुर के जितने पुरुष और स्त्रियाँ थीं वह सब अवध के सिंह अर्थात् राजा राम के मुख को बार-बार देखते थे।