पृष्ठ:कवितावली.pdf/३२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३५
उत्तरकांंड

करुनानिधान हनुमान बीर बलवान
जसरासि जहाँ तहाँ ते ही लुटि लाई है॥१७५॥

शब्दार्थ—कैधौ= अथवा। सिद्ध-सुर-साप= सिद्ध और देवतोंर के शाप से। तिहूँ-ताप तई है= दैहिक, दैविक, भौतिक तीनो तापो से तप्त हुई हैं। राय= छोटे छोटे राजा। हठनि बजाय= हठ करके खुल्लमखुल्ला। करि डीठि= देखकर। पीठि दई है= विमुख हुए हैं। निहोरे= विनती की। अपनी सी ठई है= अपनी चाही बात की हैं, अपना प्रभाव फैलाया हैं। जसरासि= यश का ढेर। तैही= तुमने ही।

भावार्थ— लोगो के पाप के कारण, अथवा सिद्ध और देवतो के शाप के वश, अथवा समय के फेर से इस समय काशी दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार के कष्टो से पीड़ित है। उत्तम, अधम, मध्यम, धनी, दरिद्री, बड़े बड़े राजा,छोटे राजा, सब हठपूर्वक खुले मैदान जान बूझकर धर्म-कर्म से विमुख ही बैठे हैं (देख-सुनकर जनता की सहायता करने से विमुख हो गए हैं)। देवतों से भी महामारी के निवारण के लिए प्रार्थना की, स्वंय महामारी से भी हाथ जोड़कर विनती की; पर सब निष्फल हुआ। शिवजी को सीधा-सादा जानकर महामारी ने अपनी मनसा पूरी की अर्थात् जो जी चाहा सो किया। ऐसे समय में हें दयासागर, वीर और बलवान हनुमानजी निवारण करके आप ही यश लीजिए क्योकि कठिन समयो में जहाँ तहाँ ही ने यश की ढेरी लूटी है (यश प्राप्त किया हैं)।

मूल—संकर-सहर सर, नरनारि बारिचर,
बिकल सक्कल महामारी मॉजा भई है।
उछरत उत्तरात हहरात मरि जात,
भभरि भगात, जल थल मीचु भई हैं।
देव न दयालु, महिपाल न कृपालु चित,
बारानसी बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाहि रघुराज, पाहि कपिराज रामदूत,
रामहू की बिगरी तुहीं सुधारि लई है॥१७६॥

शब्दार्थ—सकर-सहर= काशी। सर= तालाब। बारिचर= जलजंतु।