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उत्तरकांंड

भावार्थएक तो स्वयं भयकर कलियुग ही दुःखदायी है, उस पर भी 'कोढ़ में खान की तरह' महा उपद्रवकारी मीन की सनीचरी पड़ गई हैं, जिससे वेद और धर्म लुप्त हो गए हैं, राजा अपनी प्रजा की भूमि का हरण कर लेते हैं, और सज्जन लोग कष्ट पा रहे हैं। इसे भारी पाप का ही परिणाम समझों। हे दयालु रामचंद्रजी, दुर्बल के लिए आपके अतिरिक दूसरे का आश्रय नहीं है। बल और ऐश्वर्य से रहित मनुष्य के लिए आप ही शरण हैं। हे महाराज, अगर आज आप दोनो की फरियाद न सुनेगे तो निश्चय ही आपके उस सुशोभित यश को लज्जा लगेगी (अर्थात आप जो दीन-बधु कहलाते हैं उस पर बट्टा लगेगा)।


मूल—रामनाम मातुपितु स्वामि, समरथ हितु,
आस रामनाम की, भरोसो रामनाम को।
प्रेम रामनाम ही सों, नेम रामनाम ही को,
जानौं न मरम पद दाहिनो न बाम को।
श्वारथ सकल, परमारथ को रामनाम,
रामनाम-हीन 'तुलसी' न काहू काम को।
राम को सपथ, सरबस मेरे रामनाम,
कामधेनु कामतरु मोसे छीन छाम को॥१७८॥

शब्दार्थ—हितु= हितकारी, मित्र। नेम= (स०) नियम। मरम = भेंद। अन्वय= न दाहिनी न बाम पद को मरम जानौं= सुमार्ग और कुमार्ग का भेद नहीं जानता हूँ। कामतरु= कल्पवृक्ष। छीन= (स० क्षीणा) दुर्बल। छाम= (स० क्षाम) दुर्बल। छीन छाम= अत्यत दुर्बल।

भावार्थ— रामनाम ही मेरा माता, पिता, स्वामी और समर्थ मित्र है। मुझे रामनाम की ही आशा है, रामनाम का ही भरोसा है, रामनाम ही से प्रेम है, रामनाम रटने का ही मैं नियम करता हूँ। रामनाम के अतिरिक्त न तो मैं सुमार्ग जानता हूँ न कुमार्ग। संपूर्ण सासारिक सुख और पारलौकिक सुख प्राप्त करने के लिए मैं रामनाम ही रटता हूँ। तुलसीदास कइते हैं कि रामनामीहीन मनुष्य तो किसी काम का नहीं हैं, मैं राम की शपथ लेकर सत्य कहता हूँ कि रामनाम ही मेरा सर्वेस्ध है और मेरे समान अत्यत दुर्बल के लिए रामनाम ही कामधेनु और कल्पवृक्ष है।

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