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कवितावली
मूल—
 

मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिक कै धन लीयो।
संकर कोप सो पाप को दाम परीच्छितु जाहिगो जारि के हीयो।
कासी में कंटक जेते भए ते गे पाइ अघाई कै अपनो कीयो।
आजु कि काल्हि परौं कि नरौं जड़ जाहिगे चाटि दिवारी को दीयो॥१७६॥

शब्दार्थ— मारग मारि= पथिकों को लूटकर। महीसुर= ब्राह्मण। कै= करके। दाम= धन। पाप की दाम= पाप से कमाया धन। परीच्छित= (सं० परीक्षित) निश्चय ही यह बात परीक्षा की हुई है। जाहिगो = नष्ट हो जायगा। जारि कै हीयो= हृदय जलाकर, मनमें दुःख पैदा करके। कटक= बाधक। जेते= जितने। तेगे= वे नष्ट हो गए। अपनी कीयो अघाई कै पाइ= अपने किये का भरपूर फल पाकर, तृप्त होकर। जड़= मूर्ख, कुमार्गी। जाहिंगे= नष्ट हो जाएँगे। चाटि दिवारी को दीयो= ऐसा कहते हैं कि कीट पतंगादि दिवाली का दीया चाटकर चले जाते हैं अर्थात् दीवाली के बाद नही रह जाते, समय पर स्वयं नष्ट हो जायँगे।

भावार्थ— कुमार्गी लोग राहगीरों को लूटकर, ब्राह्मणों को मारकर, करोड़ों कुरीतियों द्वारा धन एकत्र करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि शिवीजी के कोप से पाप की कमाई मन में दुःख बढ़ाकर अवश्यमेव नष्ट हो जाएगी। क्योंकि काशी में जितने भी बाधक हुए हैं, सब अपनी करनी का भरपूर फल पाकर नष्ट हो गए हैं। जैसे दीवाली के बाद कीट पतंगादि नही रह जाते, उसी प्रकार से मूर्ख भी आज या कल या परसों या नरसों, कभी न कभी समय पर स्वतः नष्ट हो जाएँँगे।

मूल—
 

कुंकुम रंग सुअंग जितो, मुखचंद सो चंद सो होड़ परी है।
बोलत बोल समृद्ध चुवै, अवलोकत सोच विषाद हरी है।
गौरी कि गंग बिहंगिनि बेष, कि मंजुल मूरति मोद-भरी है।
पेखि सप्रेम पयान-समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है॥१८०॥

शब्दार्थ— कुंकुम रंग= केसरिया रंग। सुअंंग= चौंच। जितो= जीत लिया है। होड़ परी है= बाजी लगी है, शर्त लगी है। समृद्धि= धन, संपत्ति। विहगिनि= पक्षिणी। मजुल= सुन्दर। पेखि= (स० प्रेक्ष्य) देखकर।