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कवितावली


से काशी को बनाया, विष्णु ने इसका पालन किया, शिवजी ने प्रलय के समय भी इसको अपने त्रिशूल पर रखकर नाश होने से बचाया, उसी काशी को नीच कलियुग मृत्यु के वश मे होकर नाश करना चाहता है। राजा परीक्षित इसको छोड़कर इस पर कृपालु हुए और इस दुष्ट का भला किया, उस उपकार को इस दुष्ट ने भुला दिया है। अतः है हनुमान! रक्षा करो। हे करुणानिधान रामचद्रजी! रक्षा करो, कलिरूपी कसाई काशीरूपी कामधेनु को मार डालता है।


मूल— विरची बिरंचि की बसति बिस्वनाथ की जो,
प्रान हू तें प्यारी पुरी केसव कृपाल की।
ज्योतिरुप-लिंगमई, अगनित लिगमई,
मोक्ष वितरनि बिदरनि जगजाल की।
देवी देव देवसरि सिद्ध मुनिवर बास,
लोपति बिलोकत कुलिपि भोंड़े भाल की।
हा हा करै 'तुलसी' दयानिधान राम! ऐसी,
कासी की कदर्थना कराल कलिकाल की॥१८२॥

शब्दार्थ- बसति= बस्ती, पुरीं। ज्योतिरूप लिंगमई= द्वादश ज्योतिलिंगों में से एक लिग (विश्वनाथजी का) काशी में भी हैं। मोक्ष-बितरनि= मोक्ष बॉटनेवाली। बिदरनि= काटनेवाली। जलजाल= सासारिक प्रपंचों का जाल। लोपतिं= नास हो जाती है। विलोकत= दर्शन मात्र से। भोंड़े भाल की= अभागे के कपाल पर लिखी हुई। कुलिपि= दुर्भाग्य की रेखा। हा हा करै= विनती करता है। कदार्थना= दुर्दशा

भावार्थ— जो कोशी ब्रह्मा ने बनाई, जो शिवजी की पुरी है, जो दयालु भगवान् विष्णु की प्राणों से भी प्यारी नगरी है, जहाँ द्वादश ज्योतिलिंग में से एक लिंग (विश्वनाथजी का) विराजमान है, जहाँ असख्य शिवलिंग हैं, जो मोक्ष देनेवाली है, जो सासारिक कष्टों का नाश करनेवाली है, और जहाँ देवी, देवता, गंगा, सिद्धजन, और श्रेष्ठ मुनियों का निवासस्थान है, जो अभागों के कपाल पर लिखे हुए दुर्भाग्य की रेखा को मिटा देती है, ऐसी काशी की कराल कलियुग ने दुर्दशी की है। अतएव हे दया के घर रामचंद्रजी! मैं विनती करता हूँ कि आप काशी की रक्षा कीजिए।