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उत्तरकांंड


मूल— आस्रम बरन कलि-बिबस बिकल भए,
निज निज मरजाद मोटरी सी डार दी।
सकर सरोव महामारि ही तें जानियत,
साहिब सरोष दुनी दिन दिन दारदी।
नारि नर आरत पुकारन, सुनै न कोऊ,
काहू देवतमि मिलि मोटी मूठि मार दी।
‘तुलसी’ सभीत-पाल सुमिरे कृपालु राम,
समय सुकरुना सराहि सनकार दी॥१८३॥

शब्दार्थ— अस्रम= ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। बरन= (वर्ण) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। मोटरी= गठरी। डार दी= फेक दी। मोटरी सी डार दी= गठरी ही फेंक दी है, भार समझकर छोड़ दिया है। दारदी= दारिद्रथ। मोटी =अधिक। मूठ मार दी= (मुहावरा) जादू डाल दिया। समय= समय पर। सुकरुना सराहि= स्व (अपन) करुणा की प्रशंसा कर। सनकार दी= इशारा कर दिया।

भावार्थ चारो आश्रमो और चारों वर्षों के लोगो ने कलियुग के कारण व्याकुल होकर अपनी अपनी लोकमर्यादा भार-स्वरूप जानकर छोड़ दी है। शिवजी तो क्रुद्ध हैं, यह महामारी के प्रकोप से ही जाना जाता है। स्वामी के क्रुद्ध होने से संसार में दिन दिन दारिद्रय बढ़ता जाता है पुरुष स्त्री सब आर्त होकर प्रार्थना करते हैं पर कोई सुनता नही। जान पड़ता है कि कुछ देवताओं ने मिलकर बड़ा भारी जादू कर दिया हैं। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसे समय भयभीतो के रक्षक कृपालु रामचंद्रजी को स्मरण करते हो, उन्होंने अपनी करुणा की प्रशसा करके ठीक अवसर पर लोगों की सहायता का सकेत कर दिया (राम की कृपा से काशी से महामारी चली गई)।