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कवितावली

कुलिस कठोर कूर्म-पीठतेँ कठिन अति,
हठि न पिनाक काहू चपरि चढ़ायो है।
तुलसी सो राम के सरोज-पानि परसत हीं,
टूट्यौ मानों बारे ते पुरारि ही पढ़ाया है॥

अर्थ―कामदेव के नाशक, पुर (त्रिपुरासुर) के दहन करनेवाले, महादेवजी ने जानि (जान-बूझकर) सब गहन अस्त्रों का सार लाकर, अथवा कामदेव के नाशक महादेव ने पुर के मारने का काम कठिन जानकर, जिस धनुष को सब चीज़ों का सार लेकर बनवाया है। जनक मदसि (सभा) में जितने बड़े-बड़े भले-भले राजा हैं उन सबको बलहीन करके अर्थात् मानों उनका बल अपने में खींचकर अपना बल बढ़ाया है। बज्र से भी कठोर, कछुए की पीठ से भी कड़ा ऐसे ही धनुष को किसी ने भी आगे बढ़कर नहीं चढ़ाया अथवा न हठ करके और न भूलकर भी धनुष को किसी ने चढ़ाया। सो धनुष हे तुलसी! रामचन्द्रजी के कमल से हाथ छूते ही टूट गया मानो बचपन से महादेवजी ने उसे यही पढ़ाया था कि रामचन्द्रजी छुवैं तब ही तू टूट जाना।

शब्दार्थ―सयन = कामदेव। महन = नाश करनेवाले। गहन = बोर, कठिन। कुलिस = बज्र।

छप्पय

[ ११ ]

डिगति उबि अति गुर्बि, सर्ब पब्बै समुद्र सर।
ब्याल बधिर तेहि काल, विकल दिगपाल चराचर॥
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकंठ मुक्खभर।
सुर बिमान, हिमभानु, भानु संघटित परस्पर॥
चौंके बिरंचि संकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मांड खंड कियो चंड धुनि, जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥

अर्थ―अति भारी पृथ्वी भी सब समुद्रों पर्वतों और तालाबों सहित हिलने लगी। शेषजी उस समय बहिरे हो गये। दिकपाल और सब चर व अचर व्याकुल हो गये। दिशाओं के हाथी लरखरा गये (हिलने लगे) और रावण मुहँ के बल गिर पड़ा। देवताओं के विमान, सूर्य्य और चन्द्रमा एक दूसरे में मिल गये। ब्रह्मा